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ग्रंथावली]
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हैं।विषय- सुख के थोड़े से लाभ के लिए तुमने स्व-स्वरुप प्रतिष्ठा (चैतन्य स्वरुप) रुपी माणिक को गँवा दिया है| मैं और मेरी करते हुए तुमने अपने आप को बहुत बर्बाद किया है| माता के गर्भ में सोते हुए तेरा जन्म व्यतीत हो गया अर्थात तेरा विभिन्न जन्म धारण करते समय तुमको अनेक बार गर्भ वास करना पड़ा और इस प्रकार माता के उदर में सोते हुए तुम्हारे जन्म का अधिकांश भाग व्यतीत हो गया | विभिन्न योनियों में तुमने बहुत से वेश और रूप धारण किये| वृद्धावस्था, मृत्यु तथा कोघ् तेरे शरीरो को क्षीण करते रहे| तुम जन्म लेते हो, मरते हो तथा अनेक योनियों में भटकते फिरते हो परन्तु आनंद के मूल स्त्रोत अपने शुद्ध स्वरुप अथवा ईश्वर प्रेम की ओर उतमुख नहीं होते हो| यह जीव अनेक दुःखो एवं सतपो को भोगता है, परन्तु इसको उस परम तत्त्व का साक्षात्कार नहीं हुआ है, जो इसके समस्त दुःखो को दूर कर देगा।

रे भाई, यह जीव जिन विषयो को मंगलकारी समक्त कर उनसे प्रेम करता रहा हे,जिनके लिए, यह जिया है,वे इसका अमंगल करके नष्ट होते रहे हैं|अपने और 'पराये' के रोग द्वेष में फास कर यह जीव अपार सतापो में जलता रहा है और मृगतृष्णा रुपी झूठे संसार के पीछे भटकता ही रहा है| यह झूठे माया-मोह में ही फसा रहा है| यह इस लोक में क्या हुआ और आगे(परलोक में) क्या होगा, इसकी इसको बिलकुल चिंता नहीं है| रे जीव अब भी चेत जा और आँखे खोल कर वास्तविकता को देख| तुमको यह मनुष्य शरीर फिर नहीं मिलेगा | जीवन का सार यही है कि राम-प्रेम की अनुभूति बनी रहे| इसके लिए कोई विशिष्ट अवसर नहीं चाहिए| जब चेत जाओ, तब ही ज्ञान का प्रकाश हो जायेगा| जब ही प्रभु-साक्षात्कार की आकांशा जागृत हो जाये तब ही अज्ञानान्धकार दूर हो जाता है| पशु पक्षियों की विभिन्न योनियों में यह जीव ज्ञान में अचेत पड़ा हुआ घूमता रहा| मानव योनि में अपने पर उसको कुछ बोध हुआ| विषयासक्ति के फल स्वरुप आत्म स्वरुप धीरे-धीरे नष्ट होता रहता है| पिछले जन्म के दुखो को भी शांत नहीं कर पाता है| agar जीव उन्ही दुखो के प्रति सजग हो जाये, तो वह अपनी वर्त्तमान परिस्थितियों में संतोष न करे और उस मूल तत्त्व को प्राप्त करने के लिए आतुर हो जाये| यह भवसागर असीम है- इसका पार नहीं है| इसको पार करने के उपाय पर विचार करो| जिस भाव-जल का आदि और अंत जानना संभव नहीं है,उससे भयभीत क्यों नहीं होना चाहिए? इसको पार ले जाने वाला कौनसा साधन नौका स्वरुप है और कौन सा सद्गुरु इसके लिए केवट स्वरुप है, इसका विचार करके उन्ही का आश्रय ग्रहण करना चाहिए| यह जीव ने जब सोच विचार करके देखा, तब उसे यह संसार स्वपनवत् ही प्रतीत हुआ, कुछ बूढी तथा विचार जागृत हुआ और उसने स्वयं ही आत्म स्वरुप का चिंतन किया तब उसको प्रतिभाषित हुआ की जो तत्व उसमे समाहित हो रहा है उसको दूर अथवा पास कुछ भी नहीं कहा जा सकता है| उस