पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६६०]
[कबीर
 

तत्व को पहचानने पर हि जीव का आत्म- जागा,विवेक हुआ ओर फिर उसी में आप्का मन लगा गया | इस भव सागर को पार करने के लिए बावभत्कि अथवा ईशवर-प्रेम ही नोका हौ तथा सद्गुरु ही इस नेका को खेने वाले के केवट है | जब ईश्वर की क्र्पा होने पर यह भवसागर गोपद-खुर के समान प्रतीत होने लगे तब सम भ लेना चाहिए कि यह भवसागर अल्प (ससीम)है ओर तब यह दुलंघ्य नही रंह जाता है ।

अलंकार-(।)वीप्सा-रे

(२)रूपकातिशयोतिक -मानिक।

(३ )वीरोघाभास - जोहि हित""""बिलाई।

(४) सभग पद यमक-हित अनहित।

(५ )समग पद यमक -जोहि हित अनहित ।

(६ )रुपक-म्र्गतुषण"""ससारा|भी सागर ।

( ७ )पुनरुति प्रकाश-कधु क्धु |मुरधि ।

( ८ )विरोषोतिक की व्यंजना-पीध्ले"""सिराई।

( ८ )वश्रोतिक-काहे न मानिय ।

( ९ )उपमा-सताप सुपन करि ।

( १० )यमक -आप आप।

( ११ )सबघातिश्येतिक-कथथो नहि जाई ।

( १२ )साग रुपक-भाव भजगाति""" विस्तार ।

विशेष-इस रमौंणी की भाव -व्यजना पर वेदानितये को कथना 'ब्रह सत्व जग्निमरया 'का गहरा प्रभाव है ।

[४] दुपदी रमैणी

(१७)

भया दयाल विषहर जरि जाह्गिहान प्रेम बहु लाग । भया अनद जीव भये उल्हासा,मील रांम मानि पुगी आसा | मास आसढ़ रवि घरनि जराव्ं जरत जरत जल आइ बूझाव | रुति सुमाइ जिमें सव जागी ,अम्र्त घार होइ झर लगी || जिमों मेंहि उठी हरियाई,विरहनि पीव मिले जन जाई | भनिक्ष मानि कं भये उधाहा, फारनि कॅअन विसारो नाहा|| खेल तुम्हारा मरन भया मेरा, चोरासी लख कीन्हां फेरा | सेवग सुत जो होझ अनिआई,गुन आगुन सब तुमिह समाई|| अपने ओगुन कहु न पारा ,इहे अभाग जो तुम्ह न संभारा | दरवो नही फांइ तुम्ह नाहा ,तुम्हा विधुरे में बहू दुख चाहा || प्रेम न बरिखं जांहि उदासा, तऊ न सारंग सागर आसा | जल्हद भरये ताहि नहि भांव, कं मरि जाइ फं उहे वियावं || मिल्हु राँम मनि पुरवह आसा ,तुम्ह विधुरयां में सकल निरासा |