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[ग्रंथावली
 

नित उठि जस कीन्ह परकासा, पावक रहै जैसे काट निवासा ॥

बिना जगती केसे मथिया जाई, काष्टै पावक रह्या समाई ।।

कष्टै कष्ट अग्नि पर जरई, जारै दार अग्नि ससि करई ।।

ज्यू रांस कहे ते मै होई, दुख कलेस घालै सब खोई ।।

जन्म के कलि विष जांहि बिलाई, भरम करम का कछ न बसाई ।।

भरम करम दोऊ बरते लोई इनका चरित न जाने कोई ।।

शब्दार्थ- आना=अन्य । जहुँवा= जिस अवस्था । कष्टै कष्ट= काठ से काठ को । कलिविष= कल्मष, पाप । संदर्भ-पूर्व रसैंणी के समान ।

भावार्थ- परमतत्व ने पास कहा जा सकता है और न दूर । वह सबसे परे होते हुए भी घट-घट में व्याप्त है। मैं जहाँ कहीं भी देखता हूँ, वहाँ राम को ही व्याप्त देखता हूँ । हे भगवन् ! तुम्हारे विना मैं कोई स्थान नहीं जानता हूं-अर्थात् कोई ऐसा स्थान नही है जहाँ तू न हो । यद्यपि वह तत्व समस्त हृदयो में व्याप्त है तथापि वह अभ्यन्तर में विराजमान तत्व भक्ति-भाव के 'विना दूर (अप्राप्य) ही बना रहता है । जीव लोभ और पाप के वशीभूत होकर निराशा की अग्नि मे जलते रहते हैं। झूठी वासनाओ मे ग्रस्त झूठे व्यक्ति झूठे विषय-भोगो से सुख की आशा करते रहते हैं। जिस अवस्था मे पहुँच कर मैं अपने में व्याप्त अनाहद स्वरूप को ध्वनित कर पाया, वहीं मुझको सुख और सतोष की प्राप्ति हुई । वह परमतत्व सदैव अपने आपको सम्पूर्ण विश्व में प्रकाशित करता है जैसे काठ मे अग्नि अव्यक्त रूप से निवास करती है । यद्यपि काष्ठ में अग्नि व्याप्त रहती है तथापि प्रयत्न पूर्वक मथन किए बिना उसको प्रकट नही किया जा सकता है । (वैसे ही साधना के बिना अन्त करण मे व्याप्त परम तत्व) (अनाहत स्वरूप) का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता है । काठ को काठ से रगड़ कर अग्नि प्रकट की जाती है । वह अग्नि प्रज्वलित होकर लकडी को भी अग्निमय कर लेती है। उसी प्रकार हृदय से प्रकट किए हुए राम का जप करने से साधक भी राममय हो जाता है। राम के साथ उसकी यह एकाकारता उसके सम्पूर्ण दु खो एवं क्लेशो को नष्ट कर देती है, इससे उसके जन्मजात समस्त पाप विलीन हो जाते हैं । राम मय स्थिति प्राप्त हो जाने पर भ्रम तथा कर्म बन्धनो का कुछ भी वश नहीं चलता है, अर्थात् व्यक्ति अज्ञान जन्य भ्रम तथा कर्म-बन्धन से छुटकारा पा जाता है । संसार के प्राणी भ्रम तथा भ्रम जनित कर्मों मे ही व्यवहार करते रहते हैं। इनके स्वरूप को कोई भी नहीं समझ पाता है ।।

अलकार--(1) विरोधाभास --नियरै: पूरी । जदपि पूरी ।।

(ii) सवधातिशयोक्ति-कथ्यौ न जाइ, भरम" ' वसाई ।

इनका कोई ।।

(iii) पदमैत्री--ठौर और । होई खोई । भरम करम् ।