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घ्रंन्थावली ]

होकर सर्वदा आनन्द का ही अनुभव करता है। जो व्य्कति ज्ञान द्रिष्टि से अपने स्व्रूरूप का साक्षात्कार करता रहता है, वही भ्रम के रहस्य त्था कर्म की सच्ची प्रक्रिया को समभ्व पाता है।

  जैसे रात्रि मे द्रष्टि का अन्ध्कार रहता है और प्रकाश के अभाव मे भ्रम 

जनित सपं उसको डस लेता है, वैसे ही यह जीवन है। इसमे अज्ञान का अधकार है और इसमे मोहरूपी सपं उसको डस लेता है। असंख्य तारे है, उनकी शक्ति भी अपार है, परन्तु फिर भी वे द्रष्टि का आधार नही बन पाते हैं, अर्थात उनका प्रकाश देखने की सामर्थ्य प्रदान नही कर पाता है। इस भ्रम जनित स्ंसार-सपं को देख कर जगत के लोग भयभीत रहते है। विना ही सपं के यह दुनिया दशित अनुभव कतती है। भ्रम मे पडे हुए जीव को इन भुठे विषयो से आशा बधी हुई है। जैसे जेटे के महीने मे (अधिक धूप के समय) प्यास से पीडित हरिण म्र्गतुषणा मे भटकता रहता है, वैसे ही मानव विषयो के प्रति आसक्त होकर दसो दिशाओ मे भटकता है। वह मिथ्या मृगतृष्णा मे फसे होने के कारण जल नही पाता है। मृगतृष्णा के जल की भ्क्टी आशा मे भटकता हुआ वह मृग मर जाता है। यही जीव की अवस्था है। इस जीव रूपी मृग ने जान-बूझकर आत्मज्ञान (ईश्वर प्रेम) के आनन्द निर्भर को छोड दिया। अपने कर्मो के बन्धन के वशीभूत होकर मानव वाघ्य विषयो के लालच मे पड गया। जहा कुछ भी नही है, जीव-मृग ने उसी मे अपनी ममता जमा ली है। इसी प्रकार भ्रम एव भ्रमजनित करके उसको अपने पास रखा।

      अन्त मे अज्ञान की रात्रि समाप्त हुई और ज्ञान का सुर्य प्रकाशित हो गया। भ्रम और करम की धुन्ध का भी नाश हो गया। सुर्य रूपी आत्म ज्ञान के प्रकाश मे बहु देवोपासना रूपी तारगण क्षोण हो गए ( मन्द पड गये)। सम्पूर्ण सासारिक आचार-व्यवहार मलीन पड गये। वास्तव मे जलते जलते अन्त मे जीव सुख सागर भगवान एव उनके प्रेम को प्राप्त हो जाता है।

अलन्कार-- १) रूपकातिशयोक्ति- सम्पुर्ण रमनणी।

         २) साग रूपक- सम्पूर्ण रमणी।
         ३) रूपक- ग्यान द्र्ष्टि।