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ग्रंथावली]
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भगति हैत गावै जैलीनां, ज्यू' बन नाद कोकिला कारुहां ।।

बाजे संख सबद धुनि बेनां, तत मन चित हरि गोबिब लीनां ।।

चल अचल पांइन पगुरनी, मधुकरि ज्यू' लेहि अघरनीं ।। सावज सीह रहे सब सांची, चद अरु सूर रहे रथ खींचने । गण गंघ्रप सुनि जोवै देवा, आरति करि करि बिनवै सेवा । । बासिं गयद्र ब्रह्मा करै आसा, हम क्यू' चित दुलैभ रांम दासा ।।

शब्दार्थ-अनिल = पवन । अध = अधड्, आधी । तृषावत = प्यासा, पानी का इच्छुक । मझारी = मध्य । गछत गछत = चलते-चलते । बिंव = दो, योग्यता एव शक्ति । ढिडवा = गडढा । बारूनि = वारुणि = मदिरा ।

सन्दर्भ-कबीरदास ज्ञानोदय की दशा का वर्णन करते हैं

भावार्थ--- पवन दिन भर झू३ठी आशा से भटकता रहता है । वह अधड बना हुआ दुर्गन्ध से परिपूर्ण अनेक प्रकार के दु खो एव करुटो को सहन करता रहता है ।एक तो प्यासा रहता है और दूसरे सूर्य उसको अत्यधिक तप्त करता रहता है ।उसको दसो दिशाओं भे (सवंत्र) अग्नि का सामना करना पडता है और इस प्रकार वह जहाँ जाता है वहाँ (चारो दिशाओं मे) वह जलता ही रहता है । जब अपने दु खो पर विचार करके वह आगे बटा तो सामने ही वह जलती हुई अग्नि मे गिर गया चलते-चलते जब यह आगे आया, तो उसको अपनी योग्यता एव शक्ति के अनुरूप एक छोटा सा-गर्त (शरीर की उपाधि) प्राप्त हो गया । उससे वायु का शरीर शीतल होकर समा गया, वह उसी में रचपव गया । एक आसक्ति को छोडकर उसको दूसरे शरीर के प्रति आसक्ति भी खुब प्राप्त हुई । पवन की तरह मेरा भी मन सामाजिक सुखा की मदिरा मे रचपच गया । इस प्रकार हमको पुन दु खो एव सासारिक कीको में दग्ध होना पडा । हम चौरासी लाख योनियों में दग्ध होते हुए भटकते फिरे, परन्तु आनद के हेतु भगवान एव उनके प्रति प्रेम की और कभी अथवा किसी ने भी ध्यान नहीं दिया । जिस भगवान को छोडने के कारण हम जीव अनाथ हो गये, उसी को वह सर्वथा भूल गया है और उसके साक्षात्कार के उपयुक्त साधना पर वह अग्रसर नहीं होता है । वह परमतत्त्व जीव के हृदय (अन्त करग्ना) में विराज मान रहता है, और (अज्ञान के कारण) वह पास होते हुए भी दूर ही रहता है । उस तत्त्व को पहचाने विना जीव को आनद कद भगवान किस प्रकार दर्शन दे सकते हैं । जिस परम तत्त्व के अभाव में जीव अत्यन्त दुखी हुआ । सांसारिक कथाओं में जलते रहने वाले उस जीव को सत्गुरु ने राम तत्त्व से मिला दिया । राम तत्व का साक्षात्कार हो जाने पर जीव सहज स्वरूप में तदाकार हो गया । उस परम तत्व से वह क्षण भर को बिछुडा और फिर मायाजाल में फस गया । उस प्रियतम को साक्षात्कार होने पर आनद के वघाये गाये गये । और परमानद प्रभु के साथ दिन रात आनन्द के साथ (गाते हुए) व्यतीत हुए । जीवात्मा अपनी समस्त सखी सहेलियों (अन्त करण की प्रेमानुकूल प्रवृतियों) को एकत्र कर लिया और वह हर्ष एव उल्लास