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पीछे कबीर न काव्य के बहिरंग की ओर ध्यान नहीं दिया। सन्त कबीर के साहित्य में वह सतर्कता एवं सावधानी नहीं उपलब्ध होती है जो लिखित साहित्य के लिए अपेक्षित है। कबीर का काव्यादर्श इस बात का पोषक है कि वे कवि-कर्म को निन्दनीय मानते हैं। काव्यसौन्दर्य की अभिवृद्धि के कृत्रिम साधनों, छन्द, अलंकारादि की ओर उनकी दृष्टि नहीं गई। इसीलिए उनके साहित्य पर अलंकारों का मुलम्मा चढ़ाने का प्रयत्न नहीं किया गया। कबीर के साहित्य में जो अलंकार उपलब्ध है जिनकी योजना कवि प्रतिभा अज्ञान रूप से भावों को प्रभाव पूर्ण बनाने के लिये किया करती है। अन्य सन्तों के काव्य में भी उपमा, रूपक तथा अनुप्रासादि अलंकारों की प्रचुरता का यही एक मात्र कारण है। रहस्यदृष्टा इन सन्तों के रूपक तथा उपमाये दैनिक जीवन से सम्बन्ध रखती है। उन्हें प्रतीकात्मक मूर्तभावों के हेतु कही दूर जाने की आवश्यकता नहीं। कबीर के काव्य में रूपक,[१] उपमा,[२] दृष्टांत,[३] अद्भुत,[४] स्वाभावोक्ति[५], अतिशयोक्ति[६], सहोक्ति,[७] विशेषोक्ति,[८] अन्योक्ति,[९] लोकोक्ति,[१०] उदान्त,[११] विभावना,[१२] विरोधाभास,[१३] व्यतिरेक,[१४] विचित्र,[१५]


  1. कबीर पदावली पृ॰ ५८, ५९, ६१ तथा कबीर ग्रन्थावली पृ॰ ८७, ९३।
  2. सन्तवानी संग्रह भाग १, पृ॰ ३, ६, ८, ९, ११, १३, १५, १७, २०, २१, २५, २६, २९, ३० तथा प्रायः प्रत्येक पृष्ठ।
  3. वही पृ॰ ९, १३, २४, २६, ३१।
  4. वही पृ॰ ३१।
  5. वही पृ॰ २३, २४, २५, २६।
  6. ब्रह्मवाणी संग्रह भाग १, पृ॰ ५।
  7. {{{1}}} {{{1}}} पृ॰ २६।
  8. वही पृ॰ २, ३, ५, १७।
  9. वही पृ॰ १५१।
  10. वही पृ॰ ९-१०।
  11. वही पृ॰ भाग १ पृ॰ १।
  12. कबीर ग्रन्थावली पृ॰ १३९-१४०।
  13. वही पृ॰ २३, ८६।
  14. स॰ दा॰ स॰ भाग १, पृ॰ २।
  15. कबीर ग्रंथावली पृ॰ १४१।