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[कबीर
 

जोकौ दूध धाइ करि पीजै, ता माता कौं वध क्यूं कीजै ॥

लहुरै थकै दुहि पीया खीरो, ताका अहमक भकै सरीरो ॥

बेअकली अकली न जांनही, भूले फिरै ए लोई ।

दिल दरिया दीदार बिन, भिस्त कहाँ थै होई ॥

शब्दार्थ--तुरकी धर्म=इसलाम धर्म । बजगार=अनुचित कार्य । बोधा= जान भूझ कर । गोफिल=गाफिल, अहंकार मे मदहोश । अहमक=पागल, मूर्ख । दिल दरिया=विशाल हृदय । दीदार=साक्षात्कार । भिस्त=वहिश्त, स्वर्ग । लहुरै =छोटे बच्चे ।

सन्दर्भ -कबीरदास इसलाम धर्म के वाह्चार के प्रति विरोध प्रकट करतेहैं ।

भावार्थ - हमने इसलाम धर्म के सच्चे अनुयायियो की बहुत खोज की । ये लोग जान-बूझ कर अनेक अनुचित कार्य करते हैं । ये धर्म के अहकार मे मदहोश रहते हैं और स्वार्य के वशीभूत होकर गाय का वध करते हैं । माता के समान जिसके दूध को पिया जाता है, उस (गाय) का वध क्यो किया जाना चाहिए । छोटे बच्चे तथा थके हुए (रोगी एवं वृध्द) व्यक्ति जिसका दूध पीते हैं, उसी गया के शरीर को मूखं व्यक्ति खाते हैं । वे मूर्ख लोग ज्ञान की बात को जानते नही हैं, परन्तु अपने ज्ञान के अहकार मे भूले हुए रहते हैं । उदार हृदय वाले सबको प्रेम करने वाल भगवान के साक्षात्कार के बिना व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है ? अर्थात करुणा सागर भगवान के सच्चे स्वरूप दर्शन के अभाव मे सुख-शांति की प्राप्ति सम्भव नही है ।

अलंकार--(1) गूढोक्ति--ता माता'कीजै ।

(11)अनुप्रास--दिल दरिया दीदार ।

(111)वकोक्ति--भिस्त'होइ ।

विशेष--(1) मामाहार का विरोध है--विशेष कर गोहत्या क यह वैष्धर्म का प्रभाव है ।

(11) वाह्चार का विरोध है, तथ भगवत्प्रोम का प्रतिपादन है । 'दिल दरिया' मे विश्व्-प्रेम की व्यंजना है ।

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पंडित भूले पढ़ि गुन्य वेदा, आप न पांवै नांनां भेदा ॥


संध्या तरपन अरू पट करमां, लागि रहेइनकै आशरमां ।

गायात्री जुग चारि पढाई, पूछ़ी जाइ मुकति किनि पाई ॥

सब में रांम रहै ल्यौ सींचा, इन थै और को नीचा ॥

अति गुन गरव करै अधिकाई, अधिकै गरवि न होइ भलाई ।

जाफी ठाकुर गरव प्रहारी, सो क्यूं सकइ गरव सहारी ॥

कुल अभिमांन विचार तजि, खोजी पद निरबांन ॥

अंकुर बीज नसाइगा, तब मिलै बिदेह थांन।।