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ग्रंथावली]
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शब्दार्थ --गुनि = गुन कर, मनन--गुनि = गुन कर, मनन करके । आप=आत्म स्वरूप , सहारी= सहन करना । विदेही थान=विदेह पद, जीवन्मुक्ति की अवस्था ।

सन्दर्भ-पूर्व पद के समान ।

भावार्थ-पडित लोग वेदो के अध्ययन एव मनन मे ही भ्रमित हो गये । नाना प्रकार की ऊहा पोह के चक्कर मे उनको आत्म-स्वरूप की प्राप्ति नही हो सकि । वे सध्योपासन,तर्पण एव ब्रह्मोचित छ कर्मों के विधि=विधान ही मे लगे रहते हैं और उन्ही के आश्रित बने रहते है । ये चार युगो से (कल्प के प्रारम्भ से) अव्दैत-तत्व (अभेद भाव) का प्रतिपादन करने वाले गायत्रि मन्त्र को पढते-पढाते आ रहे हैं । इनसे पूछा जाय कि इसके दवारा किस-किसने मुक्ति की प्राप्ति की है । सम्पूर्ण प्राणियो मे राम व्यक्ति है । फिर भि ये लोग कुछ लोगो को पवित्र करने के लिए जल के छीटें देते हैं । इस प्रकार कतिपय व्यक्तियो से अधिक नीच कौन हो सकता है ? ये लोग। अपने आपको अत्याधिक श्रेष्ठ मान कर घमण्ड करते हैं, परन्तु अधिक घमण्ड करने से भलाई नही होती है । जिन ब्राह्मणो का भगवान गर्व को नष्ट करने वाला हैं, वह ब्राह्मणो के गर्व को ही किम प्रकार सहन कर सकता है ? कबीर कहते हैम कि रे पडित अपने कुल की उच्च्ता का अभिमान छोड कर निर्वाण (मोक्ष) पद प्राप्त करने के लिए साधना करे । जब अहंकार और भेदभका अकुर एवं बीच नष्ट हो जाएगा (इनका समू नाश हो जाएगा) तब तुमको जिवन्मुक्ति की अवस्था भी प्राप्ति हो सकेगी ।

अलंकार--वत्रोक्ति-पूछो दाई । इनथैनीचा ।

सो क्यू'सहारी ।

विशेष-(1) वह्चाचार का विरोध है ।

(11) षटकर्म-स्नान, सन्ध्या, पूजा, तर्पण, जप और होम । अथवा-- अध्ययन, अध्यापन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह ।

(111) जाकौ--सहारी । हिन्दू धर्म ग्रन्थों मे इस प्रकार के वाक्याश प्राय पढने को मिल सकते हैं कि--"गरव गुपालहि भावत नाही । " अथ्वा--

नारद कहेउ सहित अभिमाना । कृपा तुम्हारि सकल भगवाना ।

करुनानिधि मन दीख विचारी । उर अंकरेउ गरब तरु भारी ।

बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी । पन हमार सेवक हितकारी ।

(रामचरितमानस-गोस्वामी तुलसीदास)
 

(२६)

खत्री करै खत्रिया धरमो, तिनकू होय सवाया करमो ॥

जीवहि मारि जीव प्रतिपारै, देखत जनम आपनौ हारै ॥

पच सुभाव जु मेटै काया, सब तजि करम भजै राम राया ॥

"खत्री सो जु कुटुंब सू सूझै, पचू मेटि एक कू बूझै ॥

जो आवध गुरग्यांन लखावा, गहि करवाल धूप धरि धावा ॥