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[कबीर
 

हेला करै निसांनै धाऊ, भूझ परै तहां मनमथ राऊ ।।

मनमथ मर न जीवई, जीवण मरण न होइ ।

सुनि सनेही रांम बिन,गये अपनपौ खोइ ।

शब्दार्थ - खत्री = क्षत्री ! प्रतिपारै = प्रतिपालन करता है। पंचू =पाँच आसक्तियाँ। आवध=आजन्म ,जीवन भर । करवात = तलवार । धूप=जोश । रेला करै=हल्ला वोलकर ।

सन्दर्भ - कबीर हिंसा का विरोध करतै है ।

भावार्थ - क्षत्री क्षात्र धर्म का पालन करते हुए हिंसा करते है। फलत उनके कर्म - वन्धन स्वाए हो जाते हैं और भी अधिक बढ जाते हैं। जीवो को मारकर वे अन्य जीव (शरीर) का पालन करते है। उससे वे देखते-देखते अपना लोक बिगाड लेते है। अपने काम-क्रोधादि पाँचो स्वभावो को छोडकर तथा सम्पूर्ण कर्मो का त्याग करके राजा राम का भजन किय जाए - इसी मे जीव का कल्याण है। छत्री वही है जो अपने विकारो के कुटुम्ब से सघर्ष करता है और पच इन्द्रियो की आसक्ति को समाप्त करके अपने अन्त करण मे एक परम तत्व का बोध जगाता है,वही वास्तव पे सच्चा क्षत्रिय वीर है। जो गुरु दवारा प्राप्त ज्ञान पर अपनी दृष्टी जन्म भर जमाए रहता है, हाथ मे ज्ञान की तलवार लेकर जोश के साथ (विकारो पर) आश्रमण करता है तथा हल्ला बोलकर ठीक निशाने पर चोट करता है तथा जिससे युध्द करते हुए कामदेव नामक राजा की मृत्यु हो जाती है, वही वास्तव मे सच्चा क्षत्रिय वीर है। इसके पश्चात् मरा हुआ कामदेव जीवित नही होता है अर्थात् सच्चे क्षत्रिय वीर को जन्म भर कामदेव नही सताता है और वह जीवन-मरण के चक्र मे नही पडता है- अर्थात् वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। राम के प्रेम से रहित (शून्य) होकर जो आचरण करते हैं, वे अपने वास्तविक स्वरुप को खो देते हैं- अथवा उन्हे आत्म-बोध नही होता है।

अलंकार-(१) विरोधाभास=जीवहि प्रतिपारै ।

(२) रुपकातिशयोक्ति-करवाल ।

विशेष-आध्यात्मिक माधना का प्रतिपादन है। वीर वही है जो अपने विकारों पर विजय प्राप्त करने। वस्तुत 'में और तेरा' की भावना से प्रसूत यह संगार ही तो हमारा वास्तविक शत्रु है। इसी पर विजय प्राप्त करके हम मोक्ष के अधिचारी बन सकते हैं। जैन धर्म मे साधक को 'जिन' या 'वीर' कहा गया है। इसी मे परम नायक वध्दंमान 'गहावीर' कहलाए। हिन्दुओ के देवत हनुमान भी अभिमान रहिन होकर महावीर कह गये। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है कि-

महा अजय समार रिपु जीति सकइ सो वीर।

जाके लम रथ होए सो सुनह सखा मतिघीर॥