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ग्रन्थावली]
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( ३० )

अरु भूले षट दरसन भाई, पाखंड भेस रहे लपटाई ।।

जैन बोध अरु साकत रौनां चारवाक चतुरग बिहूँना ।।

जैन जीवकी सुधि न जानै, पाती तोरि देहुरै आनै ।।

अरु प्रिथमीं का रोम उपारै, रेखत जीव कोटि संघारै ।।

मनमथ करम करै अस रारा, कलपत्त बिंद धसे तिहि द्वारा ।।

ताकी हत्या होइ अदूभूता, षट दरसन मै जैन बिगूता।।

ग्यान अमर पद बाहिरा, नेड़ा ही तै दूरि ।

जिनि जान्यां तिनि निकट है, रांम रहा सकल भरपूरि ।।

शब्दार्थ-लपटाई-लिप्त। देहुरा=देवालय । प्रिथमी=पृथ्वी । तूला तुल्य असरारा=लगातार ।

सन्दर्भ -कबीरदास जैनियो की औपचारिक अहिंसा का वर्णन करते हैं,

भावार्थ-हे भाइयो ! आप लोग छ दर्शनो (वैशेषिक, साख्य, न्याय आदि) के द्वारा प्रतिपादित परम तत्व के वास्तविक रूप को तो भूल गये है और उनके नाम पर प्रचारित विभिन्न पाखण्डो एव वाह्याचारों से लिप्त होकर रह गये हैं । जैन, बौद्ध, शाक्तों की सेना, चावकि चारो मतावलल्बी ज्ञान से शून्य हो गये हैं । जैनी अहिंसक मानते हुए भी जीव हिंसा का वास्तविक अर्थ नही समझते हैं । ये लोग फूल-पत्ती तोड कर अपने देवालय में चढाते हैं। दौना मे भर कर मरुआ, चम्पक आदि फूलों को लाते हैं । इन फूलो मे भी जीवो के समतुल करोडो छोटें-मोटे कृमि कीट रहते हैं । देवालय को बनाते समय ये पृथ्वी के रोमो (पेड-पौधे, घास आदि) को उखाडते है और देखते ही देखते करोडो जीवो का सहार कर देते हैं । काम के वशीभूत होकर ये निरन्तर अनेक प्रकार के कर्म करते रहते हैं और उनसे उत्पन्न क्लेशो को भोगते हुए बिन्दु पात करते है, तथा आवागमन के कारण भूत द्वार मे प्रवेश करते हैं । ये जैन लोग मतावलमिब्यों की अहिंसा सम्बन्धी धारणा बहुत ही अद् भुत होती है । ये जैन लोग अपने षट्दर्शनों मे ही ज्ञान-भ्रष्ट हो गये हैं । ये वास्तविक ज्ञान से आरम्भ अमर पद से विमुख हैं । अत जो आत्म तत्व व्यक्ति के सर्वथा निकट है, वह अज्ञान के द्वारा ग्रसित इन लोगो से बहुत दूर हो जाता है । जिन लोगो को ज्ञान एव विवेक प्राप्त है, उनके लिए आत्म-तत्व अत्यन्त निकट रहता है । वह उनका स्वरूप ही है । उन्हें तो सर्वत्र राम (आत्म तत्व) ही व्याप्त दिखाई देता है ।

अलंकार- (1) रूपक-रोम ।

(11) विरोधाभास-नेडा ही तें दूरि ।

विशेष-कबीर का कहना है कि जैन धर्म मतावल्म्बी अहिंसा का वास्तविक अर्थ नही समझते हैं । वे अपने मन्दिरो और उनमे होने वाली पूजा के