पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५९३

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[ कबीर ९०८] नही है। वह न तो युवक है, न वह वृद्ध है और न बालक ही। उस तत्व का अपनत्व अपने आप ही मे समाहिन है। कबीर विचार पूर्वक कहते है कि उस तत्व के स्वरूप को खण्डश मत सोचो। वह तो सर्वव्यापी अखण्ड तत्व है। तन-मन लगा कर उसकी सेवा करो। रामसर्वव्यापी है।

     अलंकारــــ(।) सवधातिशयोक्ति - जाण्या जाइ पारा।
              (॥)वकोक्ति कैसें  तेरा।
     विशेषــــــ (।)' नेति नेति'  निरूपण की पद्धति है। 
            (॥) वह तत्व अवणनीय इस कारण है- क्योकिं वह देश-काल द्वरा परिच्छिन्न न होने के कारण वाणी की सीमा से नही आता है।
            (॥।)वह स्वगतादि सभी प्रकार के भेदो से शून्य अद्वैत  तत्व है। बात ऐसी ही है कि ــ  
              केशव कहि न जाहि का कहिए।  
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         तुलसीदास परिहरै तीन भ्रम सो आपन पहिचानै ।
                                         ( गोस्वामी तुलसीदास)

(३८)

      नहीं सो नहीं सो नियरा, नहीं तात नहीं सो सियरा॥
     पुरिष न नारि करै नहीं क्रीरा, घांम न घांम न व्यापै पीरा॥
    नदी न नाव धरनि नहीं सो कांच नहीं सो हीरा॥
        कहै कबीर विचारि करि , तासू' लावो हेत। 
        वरन बिवरजत ह्वै रह्या , नां सो स्यांम न सेत॥
      शब्दार्थ ــ तात= उष्ण ( शत्रु)। सियरा = शीतल (मित्र)। कीरा=कीडा।
     घाम= धूप । घाम= दुख । घीरा= घैर्यवान । विरजत= विवर्जित, परे ।
    सन्दर्भـــ कबीर परम तत्व रुप प्रभु को अननिर्वचनीय बताते हैं।
    भावार्थ ــ वह परम तत्व दूर नहीं है (क्योकि वह ह्रदयस्थ  है ), वह पास भी नहीं है (क्योकि सांघना द्वारा भी दुष्प्राप्य है) । न वह उष्ण (शत्रु) है और न शीतल (मित्र) है। न वह पुरुष है और न नारी रुप ही है। वह इन दोनो मे किसी रुप मे क्रीडा नहीं करता है। न तो उसको धूप लगती है और किसी प्रकार की व्यथा ही उसको व्यापती है। न वह नदी है, न नाव है और न वह इन सबको धैर्य पूर्वक धारण पृथ्वी ही है। न वह काँच (विषय- वासना स्वरुप)ही है। और न हीरा (सद़्वृति स्वरुप) ही है। कबीरदास विचार कर कह्ते है कि रे जीव तू उस परम तत्व के प्रति अनुराग कर। वह न श्याम है और न श्वेत है। वह सब प्रकार के रंगो से परे हैं। 
    विशेष- निर्गुण निराकार ब्रह्य की अनिर्वचनीय का प्रतिपादन है। उसको किसी प्रकार के शब्दो मे आबद्ध नही किया जा सकता है।