पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५९४

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ग्रन्थावली ] [९०९

                            (३६)
   नां वो बारा ब्याह बराता, पीय पितंबर स्यांम न राता॥
   तीरथ ब्रत न आवै जाता, मन नहीं मोनि बचन नहीं बाता॥ 
   नाद न बिंद गरथ नहीं गाथा , पवन न पांणी संग न साथा॥
        कहै कबीर बिचारि करि , ताक हाथि न नाहि।
        सो सहिब किनि सेविये, जाकै धूप न छांह॥ 
     शब्दार्थ ـ बारा= बालक । राता=लाल । गरथ= ग्रन्थ ।
     सन्दर्भ ـــकबीरदास परम तत्व को अनिर्वचनीय कहते हैं। 
      भावार्थ ـ वह राम रूपी परम तत्व न बालक है और उसने विवाह-बारात ही किया है। 
     न वह पीताम्बरधारी है और न श्याम अथवा लाल रंग का वस्त्र धारण करने वाला है।  वह न तीर्थ-व्रत मे हे और न कही आता-जाता है। वह मन ही मन मे मौन रहने वाला भी नही है और न वचनो का वाचाल ही। वह न नाद रूप है और न बिन्दु रूप ही है। वह किसी ग्रन्थ अथवा गाथा का विषय भी नही है। वह न जल-रूप है और न प्राण रूप ही। उसने इनका कुछ भी सम्पर्क नही किया है। कबीरदास विचार पूर्वक कहते हैं । रे जीव, तू ऐसे स्वामी की सेवा क्यो करता है। जिसके लिए न कही धूप है और न कही छाया ही-अर्थात जो दुख-सुख के सर्वथा परे है।
       अलंकार- (ا)छोकानुप्रासـ बारा ब्याह-बराता, गरथ गाथा , पवन पाणी ।
               (اا)वकोक्ति - किनि सेविये।
       (।) विशेष- शैली लाक्षणिक है- धूप-छाँह सदृश प्रयोग।
            (॥) कबीर के राम परम तत्व हैـदाशरथि राम नही। इसी कारण वह उनके वाणी-वद्ध लौकिक रूप का निषेध करते है-"नावा बारा   राता।" इत्यादि। वह यह भी कह देते है कि बाह्याचारी द्वारा वह ग्राह्य नही है-"तीरथ  साथा।' उन्होने तो स्पष्ट कहा है किـ
   दशरथ सुत तिहुँ लोकं वखाना। नाम का भरम न जाना। 
                     (४०)

ता साहिब कै लागौ साथा, दुख सुख मेटि रह्याँ अनाथा॥ नां जसरथ धरि औतरि आवा, नां लका का राव सतावा॥ देवै कूख न औतरि आवा , ना जसवै ले गोद खिलावा॥ ना वो ग्वालन के संग फिरिया, गोबरधन ले न कर धरिया॥ बांवन होय नहीं बलि छलिया, धरनी वेद लेन उधरिया॥ गंडक सालिकरांम न कौला, मछ कछ ह्वै जलहि न डोला॥ बद्री बैस्य ग्यान नही लावा, परसरांस ह्वै खत्री न संतावा॥ द्वारामती सरीर न छाड़ा , जगनाथ ले प्यंड न गाड़ा ॥