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९१०] [कबीर कहै कबीर बिचार करि, ये ऊले व्योहार । याही थै जे अगम है, सो बरति रह्या संसारि॥

शब्दार्थ - अनाथा= अनाथो का। दैवै= देवकी। उधरिया= उद्धार किया। सदर्भ- कबीरदास अवतारवाद का खण्डन करते हैं।

भावार्थ - तुम उस परम प्रभु की शरण मे जाओ जो अनाथों के सुख-दुख को मिटाने वाला है-अर्थात् कर्म-बन्धन से सर्वथा मुक्त कर देने वाला है। उसने दशरथ के घर मे अवतार नही लिया है और न उसने लका के राजा (रावण) को ही पीडित किया। वह देवकी की कोख से भी अवतरित नही हुआ और न यशोदा ने उसको अपने गोद मे ही खिलाया। वह ग्वालों के साथ वन-वन नही घूमा और न उसने अपने हाथ पर गोवर्धन ही उठाया। उसने वामन का अवतार लेकर राजा बलि को नही छला और न बाराह के रूप मे उसने पृथ्वी और वेद का उधार ही किया। वह गण्डक नदी मे शालिग्राम की पिण्डी भी नही बना और न उसने बाराह अवतार ही धारण किया। वह मत्स्य (मछली क अवतार लेकर) तथा कच्छप (कछुए का अवतार लेकर) के रूप मे समुद्र-जल मे भी नही डोलता फिरा। बद्रिका आश्रम मे बैटकर उसने कभी भजन भी नही किया। परशुराम के रूप मे उसने क्षत्रियो का सहार भी नही किया। उसने (कृष्ण बनकर)द्वारिकापुरी मे अपने शरीर को भी नही छोड़ा, और न ही उसने जगन्नाथ की मूर्ति की स्थापना ही की। कबीरदास विचार कर कहते हैं कि अवतारवाद से सम्बन्धित ये समस्त व्यवहार उल्टे एव व्यर्थ है।(क्योकि ये देशकाल से परिच्छिन्न हैं)। इससे यही समझो कि परम तत्व अगम है। वही सम्पूर्ण जगत मे व्याप्त है तथा सम्पूर्ण जगत को संचलित कर रहा है।

विशेष- अवतारवाद सम्बन्धी समस्त पौराणिक कथाओ की निरर्थकता का प्रतिपादन है। कबीर तो केवल सर्वव्यापी परम तत्व की आराधना का उपदेश देते हैं। लौकिक वाणी एवं लौकिक व्यवहार की सीमाओ मे बाँधकर हम परमब्रह्म के महत्व को बहुत कुछ कम कर देते हैं,क्योंकि-

  जो जहन में आगया वह लाइन्तहा कैसे हुआ?
  जो समझ में आगया वह खुदा कैसे हुआ?
           (४१)
 नां तिस सबद न स्वाद न सोहा, नां तिहि मात पिता नहीं मोहा॥
 नां तिहि सास ससुर नहीं सारा, नां तिहि रोज न रोवनहारा॥
 नां तिहि सूतिग पातिग, नां तिहि माइ न देव कथा पिक॥
 नां तिहि ब्रिध बधाधा बाजै, नां तिहि गीत नाव नहीं साजै॥
 नां तिहि जाति पांत्य कुल लीका, नां तिहि छोति पवित्र नहीं सींचा॥
   कहै कबीर बिचारि करि, औ है पद निरबांन।
   सति ले मन मैं राखिये, जहां न दूजी आंन्॥