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ग्रन्थावली ] [६११

           शब्दार्थ- सारा=साला, पत्नी का भाई। सूतिग=जन्म का अशौच।
पातिग=पातक (ब्रह्य हत्या,सुरापान,गुरुतल्पगमन, स्तेय और पातकी का संसर्ग।

           सन्दर्भ - कबीरदास परम तत्व की अलोकिकता का
वर्णन करते हैं।

           भावार्थ- उस परम तत्व का न कोई शब्द है, न कोई स्वाद और न गधं ही। उसके कोई माता-पिता नहीं है और न उसको किसी प्रकार का मोह ही सताता है। न उसके सास-श्वसुर है और न साला ही है। न उसके लिए कोई रोता है और न रोने वाला है। उसके लिए जन्म-मृत्यु के अशौच नहीं है। उसके कोई आराध्या भाई नहीं है और न उसके लिए देव-कथा पीठ है। उसके यहाँ वृद्धि(कुल-वृद्धि) का कोई अवसर नहीं है और न इस कारण उसके यहाँ कभी मंगल गीत ही

होते है। उसके यहाँ किसी प्रकार के गति-नाद का आयोजन नहीं होता है। उसकी न कोई जाति-पाँति है और न कोई कुल परम्परा ही है। और न उसके यहाँ छुआछूत और पवित्रता की ही बात है। कबीरदास विचार करके कहते हैं कि जो अतीत वस्तु है, वह तो पद निर्वाण है। हे जीव, तुम सत्य तत्व को अपने ह्रदय मे धारण करो। वहाँ कोई अन्य तत्व नहीं है। वह द्वैत रहित अद्वैत तत्व है।

अलंकार- १. अनुप्रास-सबद स्वाद सोह्या। ब्रिध, बधावा बाजै।

      २. पदमैत्री-धूतिग पातिग जातिग।

विशेष- उस परम तत्व का वर्णन शब्दातीत है, साथ ही लोकिक उपमानों के द्वारा भी उसका निरूपण सम्भव नहीं है। वह तो वस्तुत: स्वयं सिद्ध अनिर्वचनीय तत्व है।

                        (४२)

नां सो सावै नां सो जाई, ताक बध पिता नहीं माई॥ चार बिचार कछू नहीं वाकै, उनमनि लागि रहौ जे ताकै॥ को है आदि कवन का कहिये, कवन रहनि वाका ह्वै रहिये॥ कहै कबीर बिचारि करि, जिनि को खोज दूरि। ध्यान धरौ मन सुध करि, राम रह्या भरभूरि॥

शब्दार्थ- उन्मनि=उस अवस्था का द्दोतक है जब मन भावाभाव अवस्था से विनियुक्त रहता है, उसे अपने ही होने और न होने की चेतना नहीं रहती है।यह साधना कबीर के 'सहजयोग' का एक आवश्यक तत्व है।

सन्दर्भ- पूर्व पद के समान।

भावार्थ- वह परम तत्व न आता है और न जाता है।( अर्थात वह जन्म-मरण के परे हैं)।उसके भाई, पिता और माता नहीं हैं।(वह सांसारिक सम्बन्धों के परे हैं)। उसको किसी प्रकार के लोकिक आचार-व्यवहार का भी पालन नहीं करना पडता है। वह तो उन्मनि(समाधि) अवस्था मे रह कर जगत को साक्षी रूप से देखता रहता है। आदि तत्व क्या है, इसके सम्बन्ध मे कौन क्या कह सकता