पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/५९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

है ? अर्थात कोइ कुछ नही कह सकता है। कोइ यह भी नही बता सकता है कि किस प्रकार के आचरण द्वारा जीव परम तत्व को प्राप्त क्रर सकता है।कबीरदास भली प्रकार मोच - विचार कर कह्ते है कि उस परम तत्व को प्राप्त को कही दूर मत खोजो । मन मे उनकी स्म्रिति जगाकर उसका ध्यान करो। वह परम तत्व रूप राम सर्वत्र् व्याप्त है ।

  अलकार -वकोक्ति-को है रहिए ।
  विशेष- पूर्व पद के समान ।
             
                   (४३)
       नाद विद रक इक खेला , आपै गुरु आप ही चेला।
      आपै मत्र आपे मत्रेला , आपै पूजै आप पूजेला।
      आपै गावै आप बजावै , अपना किया आय ही पावै।
      आपै धूप दीप आरती , अपनी आप लगावै जाती ॥
          कहै कबीर विचारि करि , भूठा लोही चांस ।
          जो था देही रहित है , सो है रमिता राम ॥
      शब्दार्थ - रक= तुच्छ । मत्रेला = मत्र लेने वाला। पूजेता= पूजा प्राप्त करने वाला।
      जाती = ज्योति ।
  सन्दर्भ- कबीरदास द्द्त रहित उस अद्दैत तत्व का वर्णन करते है ।
  भावार्थ- नाद और विन्दु की यह सहज साधना तो वास्ताव मे एक तुच्छ खेल है।
  यह स्वय ही गुरु है और स्वय ही चेला है । वह स्वय ही मत्र है और स्वय ही मत्र लेने वाला है।
  स्वय पूजा है और स्वय पूजित है । वह स्वय ही गाता है और स्वय बजाता है ।
  अर्थात कर्त्ता और भोक्ता वह तत्व ही है । वह आपही धूप दीप और आरती है तथा आप ही उसमे ज्योति - स्वरुप है। कबीरदास विचार करके कहते है कि रक्त और चम का विभेद व्यर्थ है। जो तत्व देह रहित है, वही वास्तव मे राम है और सबसे रमा हुआ है।
           अलकार -(१) पदमैत्री-गाँवै ,वजावै ,पावै।
                 -(११)विरोधाभास-जो राम।
         वशेष-अद्वैतवाद का प्रभाव स्पष्ट है।