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६१४] [कबीर

           तिहि रुकरौती पांणी पीया, यह कुछ पांडे अचिरज कीया ॥
              अचिरज कीया लोक मै, पीया सुहागल नीर ।
              इद्री स्वारथि सब कीया, वघ्या भरम सरीर ॥
           शब्दार्थ--तिण=घास फूस। सुरही=सुरभी, गाय। उदिक=पानी। चुखत=धन 
 चुसते हुए। वाकस=वख्शिश, स्वल्प द्रव्य। तुच=त्वचा।
           सन्दर्भ--कबीर कहते हे कि अत्यधिक स्वार्थपरकता के कारण ही जीव दुख 
 भोगते है। 
           भावार्थ--गाय घास-फूस खाकर और पानी पीकर द्वार पर अपने बछडे
 (बछिया) के लिये दूध देती हे। धन चूसते हुए दूध पीते हुए बछडे  पर गाय के स्वामी
 को दया नही आती है। और वह बछडे को अलग बांध देते है। और वह इस प्रकार 
 माँ-बेटे के बीच बिछोह कर देते है। वह बछडे के भाग का दूध दूह कर स्वय पी लेता है। एसा करते हुए वह किसी प्रकार का सोच विचार नही करता है। जैसा सब लोग करते है, वैसा ही पंडित जी भी करते है। वे माला-मंत्र का जप व्यर्थ ही करते है। रक्त से बनने 

वाले दूध को वे पी जाते है (मानो गाय का रुधिर ही पीते है)। इससे गाय शक्ति हीन होकर मर जाती है। उसकी म्रत्यु का कारण कोई रोग बता देते है। कुछ थोडा सा द्रव्य लेकर वे मरी हुई गाय को चमार के सुपुर्द कर देते है। उसी की खाल को रगवाकर मसक तैय्यार करा लेते है। उस मसक बाजे को लेकर सब पंडितो के साथ बैठ जाते है। अब आप ही देखिए कि पवित्रता की दुहाई देने वाले, पंडितजी के क्या ठाठ है? वे उस मसक का पानी पीते है। पंडितजी का यह कार्य आश्चर्य मे डालने वाला है। (पवित्रता का ढोग करने वाले) पंडितजी आश्चर्य मे डालने वाला व्यवहार करते है। वे चमडे के बने हुए पुर द्वारा खीचा हुआ ताजी पानी पीते है। कबीर कहते हे कि पंडितजी की भांति सब लोग इन्द्रियो की विषयासक्ति के वशीभूत होकर इस प्रकार के कार्य करते हें और इस प्रकार शरीर के माया-मोह मे ही बघे रहते है।

          अलंकार--अनुप्रास--बछा बाँधि बिछोही।
          विशेष--(१) गो-सेवा का दम्भ करने वाले किस प्रकार व्यवहार मे गोहत्या के वास्तविक रूप से उत्तरदायी है, उसकी सुन्दर भांकी प्रस्तुत की गई है। पाखण्डी जन पर भी करारा व्यग्य है।
                  
                           (४७)
           एक पवन एकही पांणी, करी रसोई न्यारी जांनी ॥
           माटी सूं माटी ले पोती, लागी कहो कहां धूं छोती॥
           धरती लीपि पवित्र कीन्ही, छोति उराय लीक बिचि दीन्ही॥
           थाका हम सूं कहौ बिचारा, क्यू भव तिरिहौ इहि आचारा॥
           ए पांखड जींव के भरमा, मानि अमांनि जीव के करमां॥
           करि आचार जु ब्रह्म् सतावा, नांव बिनां संतोष न पावा ॥