पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६०५

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भावार्थ- कबीरदास कहते है कि जब से ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हुआ तब से चित प्रशान्त हो गया। जिस अग्नि मे संसार जल रहा है,वह अब मेरे लिए शीतल प्रतीत होने लगा।

  शब्दर्थ-वैसदर=अग्नि।उदिक=जल।


४० सुब्द कौ कबीर सबद सरीर मै ,बिनि गुणा बाजै त्ंति । बाहरी भीतरी भरि रह्मा ,ताथैं छुटि भरंति॥१॥ सन्दर्भ-शरीर कि अन्दर अनहद नाद होने से तंत्री भंकृत होती है जिसके कारणा माया का भ्रम दूर भाग जाता है। भावार्थ-कबीर कह्ते हैं कि शरीर मे अनहद नाद हो रहा है जिससे बिना तारो के ही वीणा भ्रंकृत हो रही है।यह अनहद नाद मनुष्य के शरीर के अन्दर और बाह्रर चारो ओर हो रहा है जिसमे रम जाने से मनुष्य माया के भ्रम से छूट जाता है। विशेष-(१)बिना तारो के ही वीणा भंकृन होने मे कारण बिना फार्य होने से विभावना अलंकार है। (२)योगियो की घारना है कि सवंत्र अनह्द नाद होता रहता है। शब्दार्थ- सबद=अनह्दनाद।तंति=तन्त्रि,वीरगा।भरति=माया का भ्रम। ग्रण=रस्सी (वीणा के तार)

सती संतोषी सावधान,सबद भेद सुविचार। सतगुर के प्रसाद थैं,सहज सील मत सार ॥२॥ स्ंदर्भ - विषय वासनाओ से निलिप्त निर्मल मन वाले व्यक्तियों को इस अनहद नाद का ज्ञान हो जाता है। सदुगुरु की कृपा से उन्हे यह वासनाओ से साव-घान रहने वाले व्यक्ति निर्मल मन के कारण इस अनहद नाद के रहसय को पूर्ण ख्पेण