पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६०६

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जानते है। सतगुरु की क्रुपा से वे सभी व्यक्ति यह जान जाते है शील को स्वाभाविक और सरल अवस्था से पारिछय पा जाना ही सम्पूर्न मतो और धमो का सार है।

 शब्दाथ-- सावधान = विष्य वासानावो से सव्धन । थै= से

सतगुर एसा चाहिए, जैसा सिगालीगर होइ। सम्बन्ध मस्कला फेरि करि,देह द्रेह द्रपन करै सोइ ॥३॥ सन्दर्भ-- सतगुरु को शान रखने वाले कारोगर के समान होना चाहिए ताकि वह उपदेश रुपो दन के पत्थर से शरीर के कलुप को हटाकर द्पाए को भति उज्ज्वमल और स्वच्छ बना हि। विशेष --(१) उपमा आलांकर का प्रयोग हि। (२) ज्ञान रखने वाला अपने पत्थर पर लोहे के ओजारो का मोचा और कालिमा ह्ट्कार चमका देता हि उसी प्रकार गुरु भो अपने के द्वारा जीव को अज्ञान के अन्ध्कार से दुर कर देता हि।

   सतगुर साचा सुरिबा जु बाहा एक ।
   लागत ही भै मिलि गया , पड या केलेज छेक ॥

सन्द्धर्ब-- गुरु की क्रुपा से ही सब काय सफल होते हि। उसकी क्रुपा द्रुस्ति से ही साधक अपने क्षेथ्र मे सफल हो जाता हि। सन्दाथ्र--साचा =स्च्चा। सूरिया==शुरु वोर। बाष =मारा, चलाया। भै=भुमी, प्रुथ्वि । छेकें = छिद=छेद, ससार से सम्बन्ध विछेध। सन्द्बभ्र्र-- भगवान की भक्ती मे जो व्यक्ति है उन्के उपर किसो और वस्तु का प्रभाव नही पडता है।