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२६५) (कबीर की साखो

    भावार्थ-कबीर कह्ते हैं कि जब मन सांसारिक आक्पंरगो से निश्चेष्ट होकर मृतक तुल्य हो जाता है और शरीर प्रभु-भक्ति मे लगा होने के कारण क्षोरण हो जाता है, दुर्ब्ल हो जाता है तव प्रभु भक्ति के पीछे लगकर बार-बार उसको प्रश्ंसा करते फिरते हैं ।
           शब्दार्थ--कबीर-कबीर=भक्त से तात्पयं है।
             
             कबीर मरि मडह्ट गह्या, तब कोइ न बुभौ सार।
             हरि श्राढर श्रागै लिया, ज्युँ गऊ बछकी लार॥
         संदर्भ--जीवित अवस्या मे ही जो व्यक्ति मृतवत हो जाता है सांसारिक व्यक्ति उसका आदर नही करते है।
        भावार्थ--कबीरदास कह्ते है मैं जीवित अवस्या मे ही मरे हुए के समान होकर स्ंसार रुपी श्मसान मे पडा रहा किन्तु उस अवस्या मे सांसारिक मनुष्य् ने निरथंक समफकर बाते करना भी ब्ंदकर दिया। ऐसी अवस्या मे केवल भगवान ने ही वात्सल्यभाव से ग्रहरग किया जिस प्रकार गाय अपने वछडे की प्रहरग करती है।
      विशेश--तुलना किजिए मानस की चोपाई से--
      करऊँ सदा तिन कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥
      शब्दार्थ--मडहट=श्मसान, स्ंसार। वछ=वछडा।
         घर जालौ घर ऊबरै,घर राखौ घर जाई।
         एक श्रचम्मा देखिया, मडा काल कौं खाई॥
     स्ंदर्भ-जीवन्मुक्त आदमी के लिए आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है।
    भावार्थ--यदि इस सासारिक घर को जलाकर राख कर देता है अथवा माया के वन्वन मे नही पडता हूँ तो वास्तविक घर अर्थात आध्यारिमक घर सुरक्षित रखना है तो आध्यारिमक घर नष्ट हुआ जाता है। कबीर कहते है कि इस ससार मे एक आश्चय्ंजनक घटना यह भी देखा कि जो व्यक्ति इस ससार मे जीवित रखते हुए भी मृतवत होकर जो वन्मुक्त हो जाता है वह स्वय काल को खा जाता है जबकि साधारण अवस्या मे काल मनुष्य को खाता रहता है।
      विशेस--विरोषाभास अल्ंकार का प्रयोग है।
      शब्दर्थ--मडा=मरा हुआ।काल=मृत्यु,समय।
          मरतां मरतां जग मुवा, श्रौसर मुवा न कोइ।
          कबीर ऐसैं मरि मुवा,ज्युँ बहुरि न मरनां होइ॥