पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६१७

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[कबीर की साखी २७८] किसी प्रकार अन्त्र्र् नही है| वास्तविकता तो यह कि जो जिस का कवास्तविक प्रेमी होत है वह दुर हो कर्के भि अन्तरोध मन से निक हो रेहता है| विशेश (१) अथनितर न्यास अलंकार्

    (२) उल्न किजिये - "दुर स्थपि न दुरस्थो यदि मन: स्थित":"

शब्धर्थ - कमोदिनी = जल मे सदगुअय हो थो दुरसतिथि होने प्र भि गुरु को दुवरा मुलय नहि जा सकता है|

भावार्थ - क्बिर दस जो केहता कि शिश्य क गुरु तो बनारस मे सिथित है और शिश समुद्र के बैता त्पसस्या कर रह है किन्तु यदि शेशव् के शरोर मे सदोगुयो क निवास है तो गुरु के द्वारा व्ह कभि सुलाने भुलाया नहि जो सकता| स्थान कि दुरि से स्नेह सव्न्ध मे अन्तर नहि आ सकता|

भाव्रर्थ - जो व्यक्ति जिस्का स्नेह हो है वह कभि अपने प्रेम पत्र के थे आकार मिलता अवशय है और जिसको अपना शरीर और मन निव्थप्थ भाव सोप दिय है व कभि ओसको छोध पर जा नहि सकता|

शब्धार्थ - जदि तदि = जिस किसी प्रकार|

स्वामि सेवक एक मत, मन ही मे मिलि जाइ| चतुराई रीमे नहि, रिभ मन के भाए|

सन्दर्म - ईशवर चतुराए और चुदिमानी से नहि प्रापत होता है| उसकी सच्चे प्रेम से होता ह| भावर्थ - स्वामी और सेवक एक मत पर होक्रर प्रेम के कुछ रूप अपाक्रर अधयसिमक रुप मे मिल