पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६१८

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[कबीर ६२४] तीनों अर्तो मे ग्रहीत शब्द था|। गूस्प्श् आदि अग - स्थिति स्त्र मुदा कुनद्ल आदि शरीर पर घारन करने वाली वस्तुए, (३) मतुन तथा बिन्दू रश किन्तु के तातत्रीक अनुशथानो के लिए स्वीकुत सह- साचिका नारी| कबिर इन तोनो को तत्त्व प्राप्ति क साधन नहि मान्त| एसि श्र्गुनि और खपरा के छाया रुप भि त्त्तव प्रापप्ति के साघन नहि| अथ कबिर इन्को आध्यात्मिक् अर्थ दे रहे है|"

                  (२०७ )

बाबा जोगी एक अकेला, जाक तीथ बत न मेल ||थेक|| झोली पत्र बिभुति न वट्ववा, अनहद वेन बजावै|| मांगी न खाई न भूखा सोवे घर अगनां फिरि आवै। पाच जना = पान्छ जन = पाच| जमात = समूह चलाव = नियत्रित करता है|

संदर्भ - कबीरदास सिद्ध योगी का वर्न करते है| भावर्थ - योगी ससार मे अपने द्ग का एक अनोखा ही व्यत्ति होता है| ओसको तीर्थ, व्रत, मेला इत्यादि साधनो की कोई आवशयकता नही होता है| वह तो आत्म - स्वरुप मे स्तिथत होकर अनूहद-नाद रूपी वीना वजाता है| वह न तो भीख मागता और और न भौखा ही सोता है| वह अपने घत रूपी घर के ह्रद्य रूपी आगन मे ही वापिस आ जाता हि अथत्रि वह सब और से अपना मन हता कर आत्म स्वरूप मे स्थित हो जाता है| कबिरदास एसे हो योगी के चले चन्ने को तय्यार है, जो अपने जो अपनी साघना के द्वार इस ससार को छोड्क्र्र् उन देश को चले गय है अर्तिथ जो आवगमन के चत्र् मे फिर नहि प्देगा

अलंकार - १ भेदकातिशयोत्ति को व्यजना - एक अकेला।

       २ रूपक - अनहद वेन
       ३ विरोघामास - मागी खाई भूका|
       ४ रूपकातिशयो त्तिर - पाच जना

विशेष - (१) इस पद मे भी वाहा साधना के प्रतीको को अभ्यन्तर - साघना परक अर्थ दिए गय है| (२) आत्म स्वरुप स्थिति एव निस्पुहता योगी के प्र्मुख लशन है|