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२५२] [कबीर की साखी
सूरा तबही् परषिये, लड़ै धरगीं के हे्त। पुरिजा-पुरिजा ह पड़ै , तऊ न छॉढ़ै खेत॥६॥ संदर्भ - भक्त रूपी योद्धा को माया जन्य आकपंरगो से लड्ते रहन चाहिए।
भावार्थ-भक्त रूपी योद्धा की परीक्षा की कसौटी यही है कि वह ईश्वर की प्राप्ति के लिए माया मोह़् के बन्धनो से लड्ता रहे्। इस युद्ध मे भले ही उसका
शरीर टुकड़े-टुकड़े हो् जाय, फिर भी वह रण-क्षेत्र से पीठ न दिखाथे,पीछे न ह्टे।
शब्दार्थ- परषिये= परिक्षा कीजिए। धणीं= स्वामी, ईश्वर। पुरिजा-पुरिजा= टुक्डें-टुकडें। खेत न छोड़ै सरिवाँ, भूभै है् दल माँहि्ं। आसा जीवन मरण की, मन मे आँणैं नाहि्ं ॥१०॥ सन्दर्भ - सच्चा शूरवीर युद्ध करता रहता है् जय परजय का विचार नही करता है। भावार्थ-- क्बीरदास जो का कथन् है कि सच्चा साधक या शूरवीर साधना या युद्ध के
क्षेत्र को छोड़्ता नही है वह दोनो सेनाओ के मष्य युद्ध करता रहता है।
उसके मन मे जीवन और मरण की या जय और पराजय की भावना का अन्त
नही रहता है। वह तो केवल कर्तव्य करना जानता है।
विशेष-(१) रूपक अल्ंकार। (२) तुलना कीजिए गीता के सिद्धान्त से। " कर्मएयेवाघिकारस्ते मा फलेषुक्दाचन। " - गीता शब्दार्थ- है् दल= दोनो दलो, दो सेनायें। अब तौ भून्याँ ही् घणौं, मुड़ि चाल्याँ घर दूरि। सिर साहि्ब कौं सोंपता, स्रोच न कीजै सूरि ॥११॥ सन्दर्भ- ससार की ब्याघियो और प्रलोभनो से युद्ध करना ही क्षेयस्कर् है्। भावार्थ- कबीरदास जी कहते है कि ईश्वर भक्त जब भक्ति के माग्ं पर्याप्त आगे बढ जाता है तो उसके लिए सासारिक प्रलोभनो मे पड़कर पुनः
साघना के माग्ँ से लौट पड़ना उचित नही होना है। उसके लिए तो उस अवस्था मे युद्ध करना ही