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[कबीर
 

के समय मेरे पास स्थानुभूति रूपी वेल मात्र है, उसके विक्षेप रूपी पत्ते नष्ट हो चुके है ।

अलंकार--(१) साग रूपक--सम्पूर्ण पद |

(11) विरोधाभास---जीवन'कंता, मार्या'राख्या,

बेलि 'पात नहीं ।

(111) विभावना की व्यंजना--- उर विन'सोई,मृग कै सीस

नहीं रे, धुनही पिनच नहीं रे ।

(१४) अनुप्रास---तृतीय पंक्ति, व की आवृति ।

विशेष--- (1) वैराग्य की कुछ साधनाओं से मन को कुचल कर विषयो से असम्पृक्त करना न उचित है और न सम्भव ही है । कबीरदास ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य का प्रतिपादन किया है । उनका कहना है कि भावनाओं का उन्नयन करके विषयों को भक्तिमय बना देना ही काम्य है ।


(११) उर विन विहू ना---मन का हृदय उसकी सरसता है, 'खुर' आदि से व्यजित आकार भी सकल्प-विकल्प एव वासना रूप ही हैं । वे सब इस कृच्छ साधना से छिप गए हैं । ऐसे पशु का शिकार ही क्या करना, क्योंकि विषयों से वचित की गई इन्द्रिया मृतवन् प्रतीत होती हैं ।

(१११) रगत न मास - उस साधना मे तल्लीन मत होओ जिसमे केवल ज्ञान-वैराग्य की शुष्कता है और प्रेम भक्ति के रस का अभाव है । इन पक्तियों में कबीर का भावुक भक्त उभर आया है ।


(१४) ता वेल को ‘‘‘‘लौ--विक्षेपरहित माया पर साधक मन का अधिकार होगया है--उसको वह देख भर रहा है ।

(५) तुम्हरे मिलन ' ' पात नही रे--अव मेरी मनस्थिति विक्षेपरहित्त है । पत्ते रहने पर वेल के वृक्ष को परिवेष्ठित करने मे कुछ व्यवधान रहता है, परन्तु पत्तो के अभाव में वेल पूरी तरह से वृक्ष से लिपट सकती है| अतएव विक्षेप- रहित जीवात्मा अपने साद्यय् प्रियतम से पूर्णतया आवद्द् (एकाकार) होने की स्थिति को प्राप्त होगई है | मायारहित जीव अपने पति परमेश्वर में पूर्णत तदाकार होने को प्रस्तुत है ।

(६) इन पक्तियों मे सूफियों के रहस्यवाद की व्यंजना है । भक्तजन भी आवरणरहित होकर ही प्रभु-मिलन को काम्य मानते है । व्रज की गोपियों ने भी कृष्ण को तभी प्राप्त किया था, जव उन्होंने पूर्ण नग्नावस्था को सहर्ष स्वीकार कर लिया था । द्रोपदी के रक्षार्थ कृष्ण तभी आए थे जव उसने अपनी धोती की गाँठ का ध्यान छोडकर दोनो हाथ ऊँचे करके मुरारी को पुकारा था । अहकाररहित साधक मन ही वस्तुत पत्तेरहित वेल है |

(७) उलटवांसी की पद्धति से कृच्छ साधनाओं (हठयोगी साधना) का खण्डन एव भक्ति से महारस की प्राप्ति की प्रेरणा है ।