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[ कबीर की साखी
 

कबीर घोडा प्रेम का, चेतनि चढि असवार ।
ग्यान षडन्ग गहि काल सिरि, भली मचाइ मार।२७।।

संदर्भ-भक्ति मार्ग की साधना का वर्णन है ।

भावार्थ--कबीरदास जी जीवात्मा को सम्बोधित करते हुए कहते है कि तू चैतन्य होकर प्रेम के घोडे पर सवार हो जा और अपने हाथ मे ज्ञान रूपी तलवार को ग्रहण कर काल से डटकर सामना करने को तैयार हो जा क्योंकि काल (मृत्यु) तुम्हारे सिर पर खडा हुआ युद्ध करने को तैयार है ।

शब्दार्थ-- चेतनि= चैतन्य होकर । षडग = खड्ग= तलवार ।

कबीर हीरा बराजिया, महॅंगे मोल अपार ।
हाड़ गला, माटी गाली, सिर साटै व्यौहार।।२८।।

संदर्भ--ईश्वर रूपी सौदा वदी कठिनता से क्रय किया जाता है| उसी की कठिनता का वर्णन करते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि---

भावार्थ---- ईश्वर रूपी हीरे का वाणिज्य (सौदा) मैंने बहुत ही मंहगे मूल्य पर किया है । इस सौदे के तय करने में मुझे अपने शरीर की हड्डीया गला देनी पटी, मिट्टी से निर्मित शरीर भी जलाकर क्षीण कर देना पडा और अन्त मे मुझे अपना सिर भी काट देना पडा ।

शव्दार्थ-- वराजिया= मोल लिया । साटै= तय किया ।

जेते तारे रैणिके, तेते बैरी मुझ ।
धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौं तुझ।।२९।।

संदर्भ--ईश्चर के इस ससार में बहुत ही अधिक दुश्मन होते हैं | उसी का वर्णन करते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि---.

मेरे 'शत्रुओ की संख्या उतनी ही है जितने आकाश मे रात्रि के समय तारे दिखाई देते हैं । यदि मेरे धड़ को सूली पर लटका कर और सिर क्रगूरे पर टाप दिया जाय तो भी मैं ईश्वर को विस्मृत नहीं कर सकता हूँ ।

जे हारया तौ हरि सवाँ, जो जीत्या तौ अब ।
पारब्रह्म कू' सेवतां, जे सिर जाइ तौ जाब।।३०

संदर्भ--इश्वर के समक्ष हारने और जीतने दीनो प्रकार से लाभ ही लाभ है ।

भावार्थ--ईश्वर की सेवा में यदि सिर भी चला जाय तो ठीक है कोई चिंता की बात नहीं है । यदि हार भी जाऊँगा तो उस सर्वशक्तिमान् ईश्वर से हारने में