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[कबीर की साखी
 


भावार्थ-कबीर दास जी कहते हैं कि जीवात्मा रूपी सती स्त्री साधना रूपी चिता पर चढ़कर पुकारती है कि ये मित्र श्मशान । (साघनास्थल ) सुन अब तो मैं और तुम ही रह गए । अब तक जो साथी यहाॅं तक आए भी थे वे भी चले गए हैं। साधना के क्षेत्र मे केवल साधक और साधना स्थली की आवश्यकता हैं और मित्रो का कोई काम नही ।

शब्दार्थ-सलि = चिता। समान = श्म्शान। निदान = अन्त मे ।

सती बिलारी सत किया, काठौं सेज बिछाई।
             
ले सूती पिव आपणां, चहुँ दिसि अगनि लगाइ ||३४||

सन्दर्भ -सती स्त्री के सती होने का दृष्टांत देकर कबीर दास जी आत्मा को परमात्मा से तादात्म्य करने की सलाह देते हैं ।

भावार्थ- आत्मा रूपी सती स्त्री साधना की कठोर सेज को बिछाकर उस पर अपने प्रियतम (परमात्मा) को लेकर सो गई और फिर चारो ओर से कथिन आग लगा दिया । इस प्रकार अपने स तीत्व का परिचय दे रही है।

शब्दार्थ-विलरी = विचारी।


सती सूरा तन साहि करि,तन मन कीया घांणा ।
             
दिया महौला पीव कू, तब मड़हट करै बषाँणा ।।३५।।

सन्दर्भ-सती स्त्री एव शूरवीर के गुणो की प्रशंसा सभी करते हैं।

भावार्थ -सती और शुरवीर के समान ही आत्मा ने अनेक कष्टो को सहन करके मन और शरीर की घानी बनाकर मथ दिया। और साधक ने अत्यन्त परिश्रम से महेरी बनाकर परमात्मा रूपी प्रियतम को खिला दिया जिसे देखकर श्मशान तक उसके गुणो का बखान करने लगा ।

शब्दार्थ -महौला = महेरी। मड़हट = मरघट, श्म्शान। बषाण = बखान।


सती जलन कूँ नीकली, पीव का सुमिरि सनेह ।
            
 सबद सुनत जीव निकल्या, भूलि गई सबदेह ॥३६॥

सन्दर्भ-आत्मा जब परमात्मा के शब्द को सुन लेती है तो वह तुरन्त उससे मिलने का प्रयास करती है। उसे इस संसार से कोई सम्बन्ध नही रह्ता है।

भावार्थ -सती स्त्री रूपी आत्मा अपने प्रियतम रूपी परमात्मा का स्नेहपूर्ण स्मरण कर साधना के मार्ग मे दग्ध होने के लिए निकली । ऐसे ही समय मे परमात्मा का अनहदनाद सुनाई पड़ा जिसके सुनते ही आत्मा शरीर से अलग होकर परमात्मा