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२६२] [कबीर की साखी

   शब्दार्थ---छानै= छिपकर |
       कबीर हुरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ ।
       जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ ||४५||
     सन्दर्भ-- ईश्वर की कोई भजे चाहे न भजे वह सबका ध्यान रख्ता है।
     भावार्थ-- कबीरदास जी कहते है कि ईश्वर तो सभी प्राणियो का ध्यान 

रख्ता है भले ही सभी प्राणि उसका स्मरण न करे । उसका स्मरण तो बिरले ही करते हैं | जब तक व्यक्ति को शरीर की आशा रहती है तब तक वह ईश्वर का भक्त हो ही नही सकता । ईश्वर का भक्त होने के लिए तो संसार के आकषंणो से विमुख होना ही पडेगा |

            आप सवारथ मेदनी, भगत सवारदथ दास|
            कबीरा राम सवारथी, जिनि छाडी तनकी आस ||४१||६९३||
         संदर्भ-- ससार स्वाथँ से परिपूणँ है । प्रत्येक व्यक्ति के  काय किसी न 

किसी स्वार्थ से परिपूणँ होते है।

        भावार्थ --यह सम्पूणँ संसार स्वार्थ से परिपूणँ है यहाँ तक कि ईश्वर 

भक्त को भी भक्ति का स्वार्थ रहता है । कबीरदास भी स्वाथी ही है | उनके स्वार्थ मे अन्तर है वह यह कि वे केवल ईश्वर के ही स्वार्थो हैं और प्रभु प्राप्ति के लिए कबीर ने शरीर के मोह को भी छोड दिया है ।

         शब्दार्थ--मेदनी, मेदिनी= पुथ्वी(संसार से तार्पय है )
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               ४६्. काल कौ स्प्रंग
          झूटे सुख कौ सुखकहे, मानत है मनमोद ।
          खलक चवीरगा कालका,कुछ मुख में कुछ गोद ||१||
     सन्दर्भ--संसार के मायावी मनुष्य झूटे सुखो मे ही उलझे रहते है और 

काल अपने विशाल हाथो से उन्हे पकड-पकड कर खा जाता है ।

     भावार्थ--कबीरदास जी कहते हैं कि ऐ माया मे लिए मनुष्यो ! तू नश्वर 

और मिथ्या सुखो को वास्तविक समझकर प्रसन्नता का अनुभव करते हो । वास्त- विकता तो यह है कि यह सम्पूणँ संसार काल(मृत्यु) का चबेना है । कुछ तो उसने