२६४ ] [ कबीर की साखी
व्याज कहै हरि काल्हि भजौगा, काल्हि कहै फिर काल्हि | आजही काल्हि करंतडां, औसर जासी चालि ॥५|| सन्दर्भ--ईश्वर-हमरगा मे विलम्ब करना स्रेय्ष्कर नहीं होता है | भावार्थ--ससार के आक्र्ष्णो मे लिप्त प्रारगी कहते है कि ईश्वर का
स्मरन कल करूँगा और जब कल आ जाता है तो अगले कल के लिये बात फिर टाल दी जाती है और इस प्रकार आज कल के करते ही सम्पूण जीवन का समय नष्ट हो जाता है वह वे ईश्वर का स्मरण कर नही पाते है ।
शब्दार्थ--करंतडां = करते करते । कबीर पल की सुधि नहीं,करै काल्हि का साज । काल्हि अत्यन्त भद्पसी, ज्युं तीतर कौ बाज ||६|| सन्दर्भ--इस जीवन मे एक क्षण को भी कोई खबर नही है फिर भी
लोग निस्चिन्त ही रहते हैं और म्र्य्त्यु के मुख मे जाते है।
भावार्थ--कबीरदास जी कहते है कि एक पल को भी खबर नही कि क्षण
भर मे क्या हो जायगा किन्तु ऐ जिव | सब कुछ भविष्य के लिए सज्जित करके रखता है। अचानक ही कल म्र्त्यु तेरे उपर उसी प्रकार झपटेगी जिस प्रकार तीतर के ऊपर बाज़ भपटकर उसे पकड लेता है और मार डालता है ।
विशेंष --उपमा अलंकार | शब्दार्थ--अच्यता=अचानक । कबीर टग टग चोघतां, पल पल गई बिहाइ | जीव जंजाल न छाडई, जम दिया दमांमां आइ||७||
सन्दर्भ -आयु धीरे धीरे डलती रहती है किन्तु फिर भी मनुष्य पेट भरने
के अतिरिक्त और कुछ नही करता । वह ब्न्धन से मुक्त भी नही हो पाता कि म्र्त्यु को प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ--कबीरदास जी कहते हैं कि जीव ने इस ससार मे माया प्रसूत
सुखो के दानो को चुगते अपने जीवन के एक-एक क्षण को नष्ट कर दिया । फिर भी जीव ने माया के जजाल को नही छोडा यहाँ तक कि म्र्त्यु ने उसके सिर पर आकर कूच का डका बज़ा दिया ।
शब्दार्थ--टग टग = कण कण । चोघता= चुगते । मैं अकेला ए दोइ ज़णां, छेती नाही कांइ । जे जम आगैं ऊबरौ, तो जुरा पहूँती आइ ॥७||