पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६३१

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६४० ] [ कबीर

         जगु पेयन तुम देखन हारे । विधि हरि सभु नचावन वारे ।
         सोउ न जानहिं मर्म तुम्हारा | और तुम्हहिं को जाननिहारा ।
                                          -गोस्वामी तुलसीदास
                    ( २१६ )

गोव्यंदे तू' निरंजन तू' निरंजन तू' निरजन राया । तेरे रूप नहीं रेख नाहीं मुद्रा नहीं माया ।। टेक || समद नाहीं सिषर नाहीं, धरती नाहीं गगनां । रवि ससि दोउ एकै नांही, वहत नाहीं पवनां || नाद नाही व्यंद नाहीं, काल नांहीं काया । जब तै जल व्यंव न होते, तब तू ही राम राया ।। जप नांहीं तप नांही, जोग ध्यांन नहीं पूजा । सिव नांही सक्ती नांही, देव नहीं दूजा ।। रूग न जुग न स्यांस अथरबन, वेद नहीं व्याकरनां । तेरी गति तूंही जांने, कबीर तो सरनां ।।

  शब्दार्थ--निरंजन= निर्लिप्त । मुद्रा= भावसूचक मुखचेष्टा | समद=

समुद्रा | सिपर = शिखर, पर्वत या पर्वत की चोटी । व्यंद = बिंदु, शरीर |

  सन्दर्भ--कबीर भगवान को शब्दातीत अथवा वर्णनातीत बताते हैं ।
  भावार्थ--हे परमात्मा । तू सब प्रकार माया से अतीत एवं निर्लिप्त तथा

अलक्ष्य है । न तुम्हारा कोई आकार है और न तुम्हारे आकार की कोई रूप-रेखा ही है । तुम्हें प्राप्त करने के लिए कोई शारीरिक चेष्टा एव मन की मुद्रा ही निर्धारित की जा सकती है । तुम्हें माया भी नहीं व्यापती है | न तुम्हारे शुध्द स्वरूप से समुद्र है, न शिखर (पर्वत) है, न पृथ्वी है और न आकाश ही है | उसमे सूर्य तथा चन्द्र से एक भी नहीं है, न वहाँ पवन की गति है, न वहाँ शब्द है, न रूप है, न काल है, न काया है । तुम्हारे शुध्द स्वरूप में न जल रह जाता है और न उसमे पडने वाला प्रतिविम्ब रह जाता है । उस समय न जप रहता है न तप रहता है, न योग रहता है न ध्यान और उपासना का ही अस्तित्व रह जाता है । उस समय न शिव रह जाते हैं और न शक्ति रह जाती है । उस समय तेरे अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा देवता रह ही नही जाता है । उस समय ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा शब्द का प्रतिपादक व्याकरण कुछ भी नही रह जाते हैं । कबीरदास कहते हैं कि हे प्रभु । अपनी लीला तू ही जानता है । मे तो केवल तेरी शरण से आया हूँ |

    अलंकार---अनुप्रास-आछन्त |
    विशेष---(1) अद्देतवाद का सहज-स्वाभाविक प्रतिपादन है । अद्व-तावस्था

मे ज्ञाता, ज्ञेय एवं ज्ञान का भेद मिट ही जाता है । (११) तू निरजन रामा---मन-वचन-कर्म तीनो से अगमता बताई है | (111) काव्योचित भाषा मे 'नेति नेति' की शैली पर "ब्रह्म" का प्रतिपादन है 1