पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६७] [ कबीर की साखी सन्दर्भ--जीव नाना प्रकार से अपने ऊपर अभिमान करता है किन्तु उसे यह पता नहीं कि मृत्यु किस समय उसके अस्तित्व को नष्ट कर दे ।

भावार्थ--कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव । तू गर्व किस बात का

करता है, तेरे बालो को तो मृत्यु अपने हाथों में पकडे हुए है । यह भी पता नही कि वह तुझको कहाँ पर मारेगी घर में अथवा परदेश में ।

शब्दार्थ---गरबियौ= गर्व करता है ।
     कबीर जंत्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।
     जंत्र विचारा क्या करै, चले बजावण हार ||२०||
   सन्दर्भ---शरीर रूपी तंत्री प्राणवायु के निकल जाने पर नही बजती है ।
भावार्थ---कबीरदास जी कहते है कि जीवात्मा की शरीर रूपी तंत्री बज

नहीं रहीं है । उसके समस्त तार टूट गये है । जब इसको बजाने वाला प्राणवायु ही निकल गया तो फिर इस यन्त्र का इसमे क्या दोष ? वह वाजै कैसे ।

  शब्दार्थ--जत्र= पच तत्वो से निर्मित भौतिक शरीर । बजाबणाहार=

बजाने वाला प्राणवायु |

      छवणि धवन्ती रहि गई, बुझि गये अजार ।
      अहरणि रक्षा ठमूक्रड़ा, जब उठि चले लुहार ।।२१।।
 सन्दर्भ--शरीर से आत्मा स्वरूप प्राण वायु के निकल जाने पर उसके समस्त

क्रिया कलाप बन्द हो जाते हैं ।

 भावार्थ--जब इस भौतिक शरीर से आत्मा रूपी लुहार चला जाता है तो

शरीर कान्ति निस्तेज हो जाती है । शरीर रूपी भटठी की धौंकनी पडी ही रह गई इसके अंगारे बुझ गए अर्थात् गरमी निकल गई । धड रुपो तिहाई वहीं पर पडी रह गई | सारे साज सामान व्यर्थ पडे रह गए । सब का सम्बन्ध शरीर से आत्मा के रहने तक ही था ।

   शब्दार्थ--ववणि = भटठी, अहरणि = निहाई । ठमूकडा = हथौडा ।
     पंथी ऊभा प'थ सिरि, बुगचा बाँध्या पूथि ।
     मरणां मुह आमैं खडा, जीवणा का सब झूठ ||२२||
   सन्दर्भ----मरण निकट होने पर जीवन में सब कुछ मिथ्या प्रतीत होता है |
  भावार्थ--आत्मा रूपी पथिक अपनी पीठ पर कर्मों की पोटली बाँधकर

अनन्त पथ के लिए प्रस्तुत खडा है । मृत्यु उसके सम्मुख खडी है इसलिए उसे अब जीवन की सभी बातें निस्सार प्रतीत होती है ।