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४७ जावनी कौ त्र्प्रसङ्ग

जहाँ जुरा मरण व्यापै नहीं, मुवा न सुखिये कोइ। चलि कबीर तिहि देसङै, जहाँ चैद विधाता होइ॥१॥

सन्दर्भ - जिस देश मे जरा और मरण का भय नही है कबीर वही चलने की सलाह देते हैं। भावार्थ - जहाँ पर बुढापा और मृत्यु व्याप्त नही हो पाती है और किसी की मृत्यु होते नही सुनी जाती है। कबीर दास जी कहते हैं कि ऐ जीवात्मा! तू उसी देश को चल जहाँ किसी भी प्रकार की व्याधि न व्यात हो सके और यदि हो जाय तो स्वयं विधाता, प्रभु हो वैध्य बनकर औषधि भी कर दें। शब्दार्थ - जुरा = जरावस्था, बुढापा।

कबीर जोगी वनि बस्यां, पखि खाये कंद मूल। नां जारगौं किस जङी थैं, श्रमरभये श्रसथूल॥२॥

सन्दर्भ - भक्त कि अनुपम जङी बूटी से जीव अमर हो जाता है। भावार्थ - कबीर दास जी कहते हैं कि जीवात्मा योगी बनकर इस संसार रूपी वन में रह्ता है और नाना प्रकार के कद मूलादिको खोद करके खाता रहता है किन्तु पता नहीं किस जङी बूटी के प्रभाव से (इश्वर भक्ति रुपि जङी से) स्थूल शरीर अमार हो जाता है। शब्दार्थ - अस थुल = स्थूल शरीर।

कबीर हरि चरगौं चल्या, माया मोह थैं टूटि। गगन मंडल आंसगा किया, काल गया सिर कूटि॥३॥

सन्दर्भ - ईश्वर के चरणो मे अनुराग होने से जीवात्मा मृत्यु के चक्र से छूठ जाता है। भावार्थ - कबीर दास जी कहते हैं कि सांसारिक बन्धो का परित्याग करके मैं ईश्वर के चरणो मे गया तब माया और मोह से नाता टूट गया। मैने गगन म्ंडल (शून्य , व्रहमान्ड) मे अपना आसन लगा दिया जिसे देखकर काल भी सिर कूटने लगा अर्थात जीवात्मा मृत्यु के चक्र से छूटकर निकट गया।

यहु मन पढ़कि पछाङि लै, सब श्रापा मिटि जाइ। पंगुल है पिवपिव करै, पीछैं काल न खाइ॥४॥