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३०४] [काबीर की साखी
भावार्थ-समस्त फलो को देने वाला स्वामी(प्रभु) हो साक्षात् वृक्ष है और वह दया के फल याचको को प्रदान करता है जिस फल से समस्त जीवो का कल्याण होता है। ऐसा सुन्दर वृक्ष और सुन्दर फल पाने के लिए भटकते रहते हैं अर्थात् प्रभु-भक्ति छोड़कर सुख प्राप्ति के लिए अन्य प्रयास करते हैं। शब्दार्थ--दिसावरा=विदेश,अन्य्त्र ।
४५. प्रपारिष कौ प्रंग
पाइ पदा्रथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि। जोड़ी बिछुटी हंस की,पड़या बगां कैं साथि ॥१॥ संदर्भ- माया मोह के कारण जीवात्मा सासारिक आकषंण मे लिप्त रहती हैं। भावार्थ-अज्ञानरूपी आकषंण के वश होकर जीवात्मा ईश्वररूपी रत्न को पाकर भी फेंक देता है और ककड के समान व्यथं की वस्तुओ पर आकर्षित होहकर हाथ बढ़ाता है। वह,हंस के समान पवित्र आचरण रखने वाले जीवन्भुक्त व्यक्तियो से विमुक्त होकर, नीच आचरण करने वाले पाखण्डी एवं बगुला भक्तो के फेर मे पड़ जाता है। शब्दार्थ-कंकर=कंकड,व्यथं की वस्तु। बगां= बगुला। एक श्रचंभा देखिया,हीरा हाटि बिकाइ। परिषण् हारे बाहिरा,कौड़ी बदलै जाइ॥२॥ सन्दर्भ-मोहाभिभूत जीवात्मा प्रभु के वास्तविक गुणो का मूल्याकन नही कर पाता है। भावार्थ- कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार की हाट मे प्रभु-भक्ति रुपी हीरा विक रहा है। इस हीरे को परखने वाले जौहरी आसानी से नही मिलते हैं और जो मिलते हैं और जो मिलते है इसको परख नहीं पाते हैं जिसके कारण कौडी के मुल्य-- साधारण मूल्य पर बिक रहा है। शब्दार्थ-वाहिरा=अज्ञान।