पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६४०

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४६॰ पारिष कौ त्रप्रंग

        जब गुणा कू गाहक मिलै, तब गुण लाख बिकाय।
        जब गुण को गाहक नहीं, तब कौडी बदले जाय ॥१॥

सन्दर्भ --- गुणवान मनुषय की प्रशंसा गुनवानो के समाज मे ही हो सकती है, मूर्खों के समाज मे उसकी पूछ कोई नही करता।

भावार्थ --- जब किसी गुण का वास्तविक जानने वाला ग्राहक मिल जाता हैं तो वह गुण अमूल्य समझ्कर लाखों रुपयौ मे बिक जाता है किन्तु यदि उसे गुणो का पारखी ग्रहक नही मिलता है। तो वह नगण्य समझ्कर कौडियो के मूल्य मे बिकति है।

        कबीर लहरि समुंद की, मोती बिखरे श्राइ।
        बगुला म्ंभ्कन जाणई, हंस चुणे चुणि खाइ ॥२॥

सन्दर्भ ---- गुणो की वास्तविकता गुण ग्राहक ही समभ्क पाते हैं और उससे लाभ उठा लेते है।

भावार्थ ---- कबीरदास जी कह्ते हैं कि समुद्र की लहरो ने किनारे पर मोती बिखेर दिये किन्तु मोतियों के गुणॊ को न जानने वाले बगुले समुद्र मे नहाने का ही आनन्द लेते रहे। उन्होने मोतियो को देखा तक नहिं किन्तु हंस उसकी महत्ता समझ कर उसे खोने लगे। इसी प्रकार अज्ञानी जीव मोहांधकार मे पडे हुए विषय-वासना मे ही लगे रह्ते हैं और सज्ञानी जीव प्रभु-भक्ति करते हैं।

शब्दार्थ --- मंझन = मज्जन। चूणे चुणि = चुन चुन कर।

        हरि हीरा जन जौहरी, ले ले मांडिया हाटि ।
        जबर मिलैणा पारिषू, तब हीर की साटि ॥३॥७४०॥

सन्दर्भ -- हीरे की परख जौहरी ही कर पाते हैं। भावार्थ--ईश्वर हीरा है और उसकी परख करने वाले जौहरी हैं उनके भक्त जिन्होने उसको सजा-सजाकर बाजार लगा रखी है। किन्तू इस हीरे की कद्र तभी होगी, इसका वास्तविक मूल्य तभी लगेगा जब इसकी परख करने वाला कोई सच्चा भक्त मिलेगा।

शब्दार्थ--जबर=जब भी ।