पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[कबीर की साखी ३१०)

     सन्दर्भ--प्रभु कृपा से जब माया का भ्रम दुर हो जाता है तो जीव् को अपने
   विगत दिनो पर पश्चाताप होता है।
      भावार्थ-कबीरदास जी कहती है कि ईशवर की कृपा के परिणाम स्वरुप 
    मेरा सारा श्रम और सशय सभी नष्ट हो गया ।अब मुभेचन दिनो के व्यथ्ं जाने 
    का कष्ट हो रहा है जो बिना प्रभु की भक्ति के ही व्यतीत हो गये है। 
                कबीर श्राचण जाइ था,श्रागैं आगे मिल्या श्रजच ।            
                   ले चाल्या घर श्रपणै,भारी पाया सच ॥१२॥७५२॥  
          सन्दर्भ- जिस जीव का ईशवर से सम्वन्ध हो जाता है उसको ईशवर 
      सन्तोष और शानित प्रदान कर देता है।
           भावार्थ-कबीरदास जी कहते है कि मै याचना के लिए अपने घर से 
      निकल कर चला ही था कि मार्ग मे मुभ्के ईश्वर मिल गया जो कभी किसी से
      याचना ही नही करता है। वह ईश्वर मुभ्के अपने घर की ओर लेकर चल दिया
      जिससे मुभ्के अत्यन्त सन्तोष और शानित का अनुभव हो गया ।
          शबदाथ-अजच=जो कभी याचना नही करता । सच=सुख शानित 
                           ------------
           ५१ दया निरबैरता को श्र्ग
          कबीर दरिया प्रजल्या,दाभ्कै जल थल भोल।
           बस नाहिं गोपाल सौ,बिनसा रतन अमोल॥१।
      सन्दर्भ-कर्मो के कारण् संसार मे प्राणियो को दुखो की अग्नि मे जलाना
       पढता है।
      भावार्थ-कबीरदासजी कहते है कि संसार रुपी नदी मे अग्नि की
    ज्वाला जल उठी जिससे जल,थल,भाड,भखाड सभी कुछ जल उठा। उस वासना
  की अगिन ने नाना प्रकार के अमूल्य रत्नों को नष्ट कर दिया केवल गोपाल(परम 
      प्रभु)पर उसका कोई वश नही चला।
         शब्दाथ-दामे=दग्च हो गए । मोल =भाड,भखाड।
       ऊनमि बियाई बादली बर्सण लगे श्रगार ।
      उठि कबीरा घाह दे,दाभत है ससर ॥२॥