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अब यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सूफी काव्य का प्रभाव किस वातायन से आया। ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों के यहाँ प्रेम का आलम्बन निर्गुण ब्रह्म था। इसी कारण प्रेम को दीप्त करने का कोई स्पष्ट आधार इन कवियों को न प्राप्त था। अतएव प्रेम भाव की महत्ता का प्रतिपादन करने के लिए कबीर ने विरह की अनुभूति पर आश्रित आहों के आधार पर हृदय के फटने, आँखों में झाँई पड़ने, जीभ में छाले पड़ने के माध्यम से यह भी स्पष्ट कर दिया कि जो 'शीश उतारे भुइ धरै' वही उसको प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार कबीर द्वारा इस्लाम एवं हिन्दू संस्कृतियों का समन्वय हुआ। सूफियों से बहुत पूर्व ही कबीर ने प्रेम की महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा था:—

"ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े सो पंडित होय।"