पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६५०

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शब्दर्थ- च्यति-चित।

 निंदक नेडा राखिये,आंगनि कुटी बधाइ। 
 बिन साबुन पानी बिना, निरमल करै सुभाय॥

सन्दर्भ- निंदक का तिरस्कार नही करना चाहिए। भावार्थ- निन्दा करने वाले व्यक्ति को अपने से दूर नही वरन् अपने आंगन मे कुटी छबाकर रखना चहिए। क्योकि वह निन्दा के द्वारा दोषो का परिहार करके बिना साबुन और पानी के ही स्वभाव को निर्मल कर देता है।

शब्दार्थ- नेढा = समीप। साबगु = साबुन। सुभाइ = स्वभाव।

 न्यंदक दूरि न कीजिये, दीजै श्रादर मांन।
 निरमल तन मन सब करै, बकि बकि श्रानहि श्रान ॥४॥

सन्दर्भ - निन्दक को दूर न रखकर समीप ही रखना चाहिए। भाव्रार्थ- निन्दा करने वाले को दूर न करना चाहिए बल्कि उसको आदर सम्मान देकर के समीप ही रखना चाहिए। उसके समीप रहने से यह लाभ होगा कि वह हमारे दोषो को वार-वार कह करके सुधारने का अवसार देगा जिससे तनमन सभी कुछ शुध्द् हो जाता है।

 जे को नीदै साध कू, सकटि आवै सोइ।
 नरक मांहि जाँमैं मरै, मुकति न कवहू होइ ॥२॥

सन्दर्भ - साधुओ का निन्दक ईश्वर का कोप-भाजन बनता है। भावार्थ - जो व्यक्ति सज्जनो की निन्दा करते है उन पर संकट आ जाते है। वह इस नरक तुल्य ससार मे म्रुत्यु को प्राप्त हो जाता है और इस प्रकार के मनुष्य की मुक्ति कभी भी नही हो पाती है। शब्दार्थ - नीदै = निन्दा करता है । मुकति = मुक्ति।

 कबीर घास न नींदिये, जो पाऊ तलि होइ ।
 उडी पडै जब आंखिमैं, खरा दुहेला होइ ॥६॥

संदर्भ - तुच्छ से तुच्छ वस्तु की भी उपेक्षा नही करनी चाहिए। भावार्थ - कबीरदास जी कहते है कि घास एसी तुच्छ वस्तु को भी उपेक्क्षा नही करनी चाहिए। यध्यपि वह प्रति दिन पैरो के नीचे रौंदी जाती है किन्तु फिर भी जब वह उडकर आंख मे पड जाता है तो बहुत वेदना पैदा कर देती है।

शब्दार्थ - खरा = बहुत। दुहेला = वेदना।