पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६५२

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५५. निगुणों को अङ्ग हरिया जाणै रूपड़ा, उस पाणी का नेह ।। सूका काठ न जांणई, कबहू वूठा मेह ।।१।। सन्दर्भ--वास्तविक पारखी ही किसी वस्तु विशेष के गुणो को परख पाते हैं । भावार्थ-हरा वृक्ष ही पानी के स्नेह को समझ सकता है । सूखा काठ पानी के महत्व को कुछ नही समझ सकता, चाहे जितना पानी बरसे अर्थात् भक्त को ही प्रभु भक्ति का ज्ञान होता है, प्रभु भक्ति से हीन ठूठ जैसे व्यक्तियों को नहीं । शव्दार्थ--रूषणा= वृक्ष । वूठा= बरसा ।। | झिरि मिरि फिरि मिरि बरषिया पाहण, ऊपर मेह ।। | मांटी गलि मैं जल भई पाँहण वोही तेह ॥२॥ सन्दर्भ--ईश्वर प्रेम की वर्षा का प्रभाव भक्तो पर ही होता है किन्तु जड़े और दुष्टो पर नही ।। भावार्थ-पत्थरो के ऊपर झर-झर पानी बरसता रहा–ईश्वर की कृपा का जल बरसता रहा किन्तु पत्थर पर लगी हुई भक्त रूपी मिट्टी तो गोली हो गई, प्रभु अनुकम्पायुक्त हो गयो किन्तु जड़ एवं दुष्ट रूपी पत्थरो पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। शब्दार्थ- सैजल= सजल । पहिण = पाषाण, पत्थर । पारब्रहम बूठा मोतियाँ, घड़ बाँधी सिषरिह । सगुराँ सगुराँ चुणि लिया, चूकि पड़ी निगुराँह ॥३।।। सन्दर्भ-परम प्रभु की कृपा मोतियो को सतगुरु के सच्चे शिष्य ही ग्रहण कर पाते हैं। भावार्थ-परब्रह्म परमेश्वर ने ज्ञान रूपी मोतियो की घनघोर वर्षा की । जो सतगुरु के शिष्य थे उन्होने तो ज्ञान के उन मोतियों का संग्रह कर लिया और जो नियुड़ा गुरु रहित थे वे इस कार्य को नहीं कर सके । शब्दाथ—बड़ = झडी वाँधकर । कबीर हरि रस बरषिया, गिर डूंगर सिषरांह। नीर मिवणा ठाहरै, नाँऊँ छापर डॉह ॥४॥