पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६५८

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५७. साषीभूत कौ त्र्प्रंग कबीर पूछै राँम कूँ, सरल भवनपति-राइ। सबही करि त्र्प्रलगा रहौं, सो विधि हमहि बताइ॥२॥ सन्दर्भ-सकल मायादि से पुचक रहने के आर्काक्षी कवीर राम से मुक्ति का मार्ग प्रदर्शित करने की प्रार्थना करते हैं। भावार्थ-कबीर राम से पूंछ्ते हैं कि हे समस्त लोको के स्वामी वह उपाय वह विधि बताइये जिससे मैं माया के समस्त बन्धनो से दूर रहूँ। शब्दार्थ--राइ= राजा। करि= से। अलगा= अलग, पुथक। विधि= उपाय। बताइ= बताएं। विशेष-कबीर उस रहस्य भेद का ज्ञान करना चाहते हैं जो सासरिक प्रभावो से मानव को पुयक रखने मे सहायक होता है। जिहि बरियाँ साँई मिलै, तास न जांणौ त्र्प्रौर। सबकू सुख दे सबद करि, अपणी अपणी ठौर॥२॥ सन्दर्भ- प्रस्तुत साखी मे कवि ने कहा है व्रहा के दर्शन कव हो जायंगे यह उस (ब्रम्ह) के अतिरिक्त और कोई नही जानता। भावार्थ- जिस समय स्वामी का साक्षात्कार होगा, उसे और कोई नही जानता है। अपने-अपने स्थान पर वह सवको स्व उपदेशी के द्वारा सुख देता है। शब्दार्थ- वरियां=समय । सांई=स्वामी । तास=उसको । जांरगै= जानै । सवद=शब्द । अपरगी=अपनी ।

    कबीर मन का बाहुला, ऊँडा बहै श्रसोस ।
    देखत हीं दह मैं पडै, दई किसी कौं दोस॥३॥

संदर्भ- मन का नाला गन्दा और गहरा है। उससे सावधान रहना चाहिए। भावार्थ- मन का नाला वडा ही गहरा और अथाह है। कबीर कह्ते हैं कि यदि यह जानकर भी मानव मन रूपी नाले मे जा गिरे तो किसका दोष है, कौन दोषी है ? शब्दार्थ- वाहुला=वावला, विवेक रहित। ऊंडा=गहरा । असोस= अथाह। दह=म्ध्यघारा मे।