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कबीर साहित्य की महान परम्पराएँ

साहित्य एवं जीवन द्वारा परम्पराओं का जन्म भी होता है और परिपालन भी होता है। कबीर ने हमारे साहित्य की अनेक परम्पराओं को अपनी महत्वपूर्ण जन कल्याणकारी रचनाओं के द्वारा बल प्रदान किया, और साहित्य की महान् परम्पराओं को जीवन प्रदान किया। भूत की घटनाओं और वर्तमान के कठोर सत्यों को इन्होंने भविष्य से शृंखलाबद्ध कर दिया। उनके साहित्य में संस्कार गत रूढ़ियों, साहित्यिक मान्यताओं और तत्कालीन परिस्थितियों का अद्भुत समन्वय एवं चित्रण मिलता है। परम्परा भूत और वर्तमान के सोपानो को पार करती हुई भविष्य की ओर अग्रसर होती है। दूसरे शब्दों में वह अतीत से भविष्य की ओर प्रगति की मूल धारा है, जो क्रमशः चली आ रही है, परन्तु उस सरिता के समान जो कही पर तीव्र गति से और कही पर मध्यम गति से बहती रहती है। इसमें सदैव एक तारतम्य रहता है, और यही इसकी प्रभावित करने की शक्ति है।

कबीर की परम्परा को समझने के पूर्व उनकी एक दो सामान्य विशेषताओं की ओर ध्यान देना आवश्यक है। कबीर स्वभाव से ही बुद्धिवादी और क्रान्ति प्रिय संत थे। उनका रूढ़ि विरोध क्रान्ति की सीमा तक पहुँच गया था। साथ ही उनके निष्कपट व्यवहार ने उन्हें अत्याधिक लोक प्रिय बना दिया है। कबीर सच्चे सत्यान्वेषक थे। सत्य का अन्वेषण उन्होंने कोरे वाग्जाल पर ही नहीं किया है, वरन अनुभवों की शिला पर सत्य की खोज के साथ-साथ धर्म के सामान्य तत्वों पर अधिक बल दिया। सामान्यतया कबीर साहित्य की मुख्य परम्पराएँ है:—

(१) मानवतावाद (२) धार्मिकता (३) जातीयता (४) प्रगतिशीलता (५) शाश्वतता (६) सजीवता

मानवतावाद

कबीर साहित्य की सर्व प्रथम महान परम्परा मानवतावाद है। भारतीय दर्शन के इतिहास में मानवतावाद के चिन्तन और विषलेशण का सर्वोत्तम समय या उपनिषद् काल। यथा ग्रीक दार्शनिकों ने भी आत्म ज्ञान और आत्म विश्लेषण पर बहुत जोर दिया है। आत्म ज्ञान प्राप्त कर लेना मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ कर्त्तव्य