पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६६०

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सन्दर्भ-माया रुपि वेलि के विशय मे पुन: स्वानुभूति की अभिव्यक्ति करते हुए कबीर ने इस साखो मे उसकी विचित्रताओ पर विचार किये है।

 भावार्थ - माया-वेलि बडौ विचित्र है। यदि इसे काटा जाय तो हरीतिमा होतो है और इसे सोचने से कुम्हला जाति है। इस गुरावन्ति बेलि के गुर अकथ-नीय है।
 शब्दार्थ-डहडहो=हरियाती है,हरी होती है। कुमिलाइ=कुमिलाइ = कुम्हला जाती । गुरवती- गुर वालो अर्थात् रजो,तमो तथा सतो गुणो से सम्पन्न्।

विशेष- प्रस्तुत साखी मै कबीर ने यह बताने की चेष्ठा की है कि माया रुपी वेलि को काटने से आध्यात्मिक जिवन हरा भरा या सम्म्पन होता है।और माया को सोच्नने या पोषण करने से आध्यात्मिक जीवन कुम्हला जाता है। भक्ति या साधना वृक्ष् माया के सूख जाते है।त्रिगुनात्मक सत्ता से पूर्न इस बेलि के गुर कहते यही बनता है।

श्रागारिन बेलि श्रकसि फल , श्ररन व्यावर का दूध। ससा सींग् की घूनहदडी , रमै बाञ का पूत॥

सन्दर्भ- प्रस्तुत साखी मै कबिर ने यह कहा है कि माया-वेल का फल आकाश मै लगता है।
भावार्थ- सन्सार-आनगन मै माया रुपी वेल उगती है परन्तु इस्का फल आकाश मै लगता है। यह उक्ति उसी प्र्काद्य्र आश्चर्यजनक है यथा अनव्याइ गाय के दूध, खरगोश के सीगं से बाजा

बनता तथा वन्दध्या नरी के खेलने कि कल्पना।

शबदार्थ- आगरिग= आङन=स्ंसार। अकसि= आकाश । अप= अनबिना।व्यावर=व्यग्रयि हुई।स्सा=श्शा।घुनह्ङी = एक वाध्य विशेष। रमैं = खेले । 
विशेष- प्रस्तुत सखी मै सहस्त असम्भव बातो का उल्लेख कबीर् किया है। पृथ्वी के वेल का फल  आकाश मै , अनव्ययि क दूध, शाशा की सींग वाघ तथा वाघ का खेलता  हुआ पुत्र । इस विरोवी  कथनो के द्वारा कबीर् को केवल यहि अमीष्ठ अभोस्थ के माया के जदे कर्थो पर है पर फल आकाश मै है।
  कबीर काइ वेलदि,कदवा ही फल हुई।
  साधा नाव पर पाइये,जे वेलि बिछोहा होइ॥