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६७६ ] [ कबीर

परन्तु म्रुत्यु से किसी प्रकार नही बचा जा सकता है। अत: हे भगवान! मैं तुम्हारी शरण आया हू। जन्म-मरण के चक्र से मेरी रक्शा करो।

                                 (२४६)

पांडे न करसि बाद बिबाद, या देही बिन सबद न स्वाद॥ टेक ॥ अंड ब्रहम्ंड खड भी माटी, माटी नवनिधि काया। माटी खोजन सतगुर भेटचा, तिन कछू अलख लखाया।। जीवत माटी सूवा भी माटी, देखौ ग्यांन बिचारी। अति कालि माटी सै बासा, लेटॅ पांच पसारी॥ माटी क चित्र पवन का थमा, व्यद संजोगि उपाया। भानै घडे संवारै यहु गोन्यद की माया॥ माटी क मन्दिर ग्यान का दीपक, पवन बाती उजियारा। तिहि उजियारै सब जग सूभ्कै, कबीर ग्यांन बिचारा॥

शब्दार्थ --- थभा = स्तम्भ, खम्भा, सहारा। व्यद = बिंदु, चीर्य। भानै = टूटे हुए। बाति = बत्ती। उजियारा = प्रकाशित है।

सदर्भ --- कबीरदास सन्सार की असारता का वर्णन करते है।

भावार्थ --- कबीर कहते है कि अरे पण्डित! तुम वाद-विवाद (शास्त्रार्थ) मत करो। इस शरीर के बिना न शब्द रह जाएगा और न स्वाद रह जाएगा - न तो शास्त्रार्थ ही रह जाएगा और न शास्त्रार्थ का प्रानन्द ही रह जाएगा। तुमहारा शास्त्रार्थ तो अवलम्बित है शरीर और शरीर की स्थिति यह है कि यह समष्टि जगत और इस विश्व का प्रत्येक अश- सभी कुछ मिट्टी है। यह नवनिधियो को भोगने वाला शरीर भी मिट्टी ही है। इसी मिट्टी के सन्सार मे खोजते-खोजते (विभिन्न साधनाओ मे भटकते हुए) सद्गुरु से मेरी भेट हो गई। उन्होने मुभक्को उस अलक्ष्य परम तत्व का कुछ ज्ञान करा दिया। अरे मानव! तू ज्ञान पूर्वक मनन करके देख। यह शरीर जीवित अवस्था मे भी मिट्टी है और मरने पर भी मिट्टी है। इस शरीर को अन्तत मिट्टी मे ही मिल जाना पडता है और अन्त समय मे यह जीव ज़मीन पर (मिट्टी मे) पैर फैला कर लेट जाता है। यह शरीर मिट्टी का ही पुतला है और प्राण वायु का आधार लेकर खडा है तथा केवल वीर्य एवं रंज की बूंदो के संयोग से यह उत्पत्र किया गया है। भगवान की यही लीला है कि वही घडे-रूपी शरीरो को नष्ट करता है और वही इनका निर्मण करता है। कबीरदास ग्यान पूर्वक विचार कर कहते है कि मिट्टी के इस शरीर रूपी मन्दिर में ग्यान रूपी दीपक जलता है। प्राण वायु रूपी वत्ती इसमे प्रकाशित है - इस ज्ञान दीपक के प्रकाश के द्वारा ही सम्पूर्ण संसार का सम्यक ज्ञान होता है।

अलकार --- (१) छेकानुप्रास - वाद विवाद, सवद स्वाद।

          (२) पदमैत्री - अद ब्रह्मांड खण्ड। मूवा माटी।