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६६२] [कबीर

संदर्भ - कबीरदास सच्ची भक्ति के स्वरूप और उसकी महिमा का वर्णन करते है।

भावार्थ - कबीर कहते है कि अगर मैंने ग्यान का रहस्य न समझा, तो मैंने अपना जीवन व्यर्थ ही गवा दिया। मैं तो इस संसार को कर्म रूपी व्यापार स्थल (हाट)करके जानता हूं और यहांअ समस्त प्राणी कर्म-व्यापार के हेतु आए हैं। हे जीव, सजग होकर समभ सको, तो सावधान होकर समभ लो। मूर्ख लोग इस संसार रूपी हाट में आकर अपने मूल (गांठ की पूंजी) को भी गवा देते हैं - अर्थात वे अपने चेतन्य स्वरूप को विस्म्रुत कर बैठ्ते हैं। इस कर्म-व्यापार मे नेत्र, वाणी, सुंदर शरीर - सब थक जाते है। उनके जन्म-मरण भी थक जाते हैं अर्थात व्यक्ति बार-बार जन्म लेते-लेते और मरते-मरते भी ऊब जाते हैं। परंतु यह माया - संसार के प्रति आमक्ति नहीं थकती हैं। हे मेरे चंचल मन,जब तक इस संसार मे प्राण है,तब तक (इनी बीच में) तू सावधान होकर वस्तु-स्थिति को समल्भ ले। चाहे ओपचारिक भक्ति न कर सको, परन्तु भक्ति की भावना बनाए रखना जिससे भगवान के चरणों में मन का निवास बना रहे। जो लोग संसार के प्राणाधार भगवान के वास्तविक स्वरूप को समझ कर प्रभु का स्मरण करते हैं, उनके ग्यान और विवेक नष्ट नहीं होते हैं। कबीरदास कहते हैं कि जो जानबूझ कर किसी को पराजित करने का प्रयत्न नहीं करते हैं, उसकी इस जीवन में कभी पराजय नहीं होती हैं। अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति विरोधी भाव या शत्रु भाव से रहित हैं, उनकी सदैव विजय ही विजय होती हैं।

अलंकार (१) रूपक - संसार हाट ।

      (२) रूपकातिशयोक्ति - वणिजन, मूल ।
      (३) पदमैत्री - नैन वैन, जीव भाव ।
      (५) अनुप्रास - थाके थाके थाकी, जे जन जानि जप जग जीवन। कहें कबीर कबहूं। 
      (४) पुनरुक्ति प्रकाश - चेति चेति। 
      (७) विरोधाभान - भगति जाव पर भाव न जइयों।
               माया मरो न मन मरे, मरि मरि जात ससीर।
               त्राता तर्ष्णा ना मरी कह गए वास कबीर।