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समझा जाता था। मनुष्य का सवश्रेष्ठ विकास या आत्म ज्ञान प्राप्त कर लेना। इसके बाद और कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता है। आत्म ज्ञान के अनन्तर मनुष्य का परम कर्तव्य समझा जाता है, उस ब्रह्म का साक्षात्कार अथवा प्राप्त करना जो समस्त जगत का हेतु कारण या कर्त्ता है। इस प्रकार आत्म ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े दार्शनिकों ने महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की और अपने विचारों के प्रसार के लिए अथक परिश्रम किया। सम्राटों और शासकों के दरवार में विद्वान् एवं ज्ञानी पुरुष ज्ञान प्राप्ति की चर्चा के तदनुसार वातावरण का प्रसार करके मानवतावाद का उपदेश दिया करते थे। उनके चिन्तन और चर्चा विषय होता था "ज्ञान" एवं "मानवतावादी विचार।"

इसमें सन्देह नहीं है कि वह मानवतावादी दृष्टिकोण जिसका प्रचार भारतीय दार्शनिकों ने समय-समय पर किया था, एक बड़े भारी कल्याणकारी वातावरण के प्रचार में अत्याधिक सहायक हुआ। इस विचार धारा ने एक ऐसे वातावरण की सृष्टि की जहाँ मानव हृदय से मानव के प्रति सहानुभूति का स्रोत प्रस्फुटित हो उठा, और एक दूसरे को समझने में सहायता पहुँची। मानवतावाद के प्रचार में उपनिषद् साहित्य एवं तत्कालीन दार्शनिकों ने बड़ी सहायता प्रदान की। इस दृष्टि से उपनिषद् काल मानवतावाद के प्रचार के लिए सबसे उत्तम समय माना जाता है।

मानव की शाश्वत सुख की लालसा उसके अमृततत्व में ही सन्निहित रहती है। मानव के सुख का लक्ष्य या उद्देश्य शारीरिक सुख या भौतिक सम्पत्ति की प्राप्ति ही नहीं होती वरन् इसके अतिरिक्त कुछ और भी है जो मानव को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखता है और वह है 'सत्य' और उसकी प्राप्ति भौतिक सम्पत्ति और भौतिक सुख के आनन्द से मानव का चित्त कभी न कभी उचट जाता है, परन्तु सत्यं, शिव, सुन्दरम् के सान्निध्य और नैक्ट्य में रहकर मानव का मन कभी भी विकृत नहीं होता है। वास्तव में मानव जीवन का चरम उद्देश्य या लक्ष्य है, चिर सत्य की प्राप्ति करना। मानव की आत्मा की उन्नति तभी हो सकती है, जब समस्त जीवों पर समान स्नेह हो और जब सांसारिक वस्तुओं में आशक्ति न हो। भारतीय दार्शनिकों ने बारम्बार "आत्मवत सवंभूतेषु यः पश्यतिसः पंडितः" का उपदेश दिया है। हमारी चिन्तन धारा सदैव से इस बात पर जोर देती रही है कि दूसरे को आत्मवत् समझना चाहिए दूसरे के कष्टों व्यथाओं और दुःखों को अपनी अनुभूति बनाना चाहिए। इस उदार दृष्टिकोण ने भारतीय जीवन के समस्त कलुषों को धोकर उसे निर्मलता प्रदान करने का प्रयत्न किया। कहना न होगा कि इस दृष्टि ने भारतीय जीवन ने दिव्यता का संचार किया और उसे उदात्त बनाने में अपूर्व योग प्रदान किया।