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कबीर मेल के प्रति भूल कर भी आसक्त नही होता है । यह जीवन उलझे हुये नौ मन सूत की भांति है । जीव इसकी गुत्थियों को जन्म जन्मान्तर तक सुल्झाने का प्रयत्न करते रहते हैं । कबीर कहते है कि हे जीव, तुम किसी अन्य साधना के फेर मे मत पड़ो, केवल एक राम का भजन करो जिससे तुम्हरा पुनर्जनम न हो और कही तुम्हे इस उलझन मे न पड़ना पड़े ।
अलंकार--(१) रूपक घर तन । (२) गुढोक्ति--नही किस केरा । (३) पुनरूक्ति प्रकाश--जनमि जनमि । (४) रूपकातिशयोक्ति -- बाजी,बाजीगर,नौ मन सूत । विशेष---(१) नौ गन सूत मुहावरा है । कतिपय आलोचको ने इसका प्रती-कात्मक अर्थ किया है-- पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा अन्त करण चतुष्टय (मन,बुद्धि,चित्त एव्ं अहंकार ) ।
(२३६) हावड़ि वावड़ि जनम गवावै, कबहूँ न रांम चरन चित लावै ॥ तेक ॥ जंहा जंहा दाम तहा मन धावै, अगुरी जिनतां रेनि बिहावै । तृया का बदन देखि सुख पावे,साध की सजति कबहूं न आवै ॥ सरग के पंथि जात सब लोई, सिर धरि पोट न पहुंच्या कोई । कहे कबीर हरि कहा उबारै, अपरगै पाव आप जौ मारै ॥ शब्दार्थ --हावड़ि धवड़ि=आपा धापी, दौड़ धूप । दाम=धन । धावै=दौड़्ना है । बिहावै =व्यतीत करता है । तृया=त्रिया,स्त्री, पोट=गठरी । सन्दर्भ --कबीर कहते है कि विशय-भोग के प्रति आसक्त जीव का उद्धार सम्भव नही है ।