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अल्ह ल्यौ लांयें काहे न रहिये,
अह निसि केवल रांम नामं कहिये ।। टेक ।। गुरुमुखि जलमंा ग्यांन मुखि छुरो, छुई हलाल पंचू पुरी ।। मन मसोति मै किनहूँ न जांनां, पच पीर मलिम भगवांनां ।। कहै कबीर मै हरि गु ंन गाऊ, हिटू तुरक दोऊ समझाऊँ ।। शब्दार्थ -- ल्यो = लो, लगन । अह = दिन । हलाल = विहित, शरई रीति से पसुवध । कलमा = वह उत्कि जो मुसलमानो के धर्म - विशवास का मुल मत्र है -ला इलाह इिल्लल्लाह, मुहम्मद रसूललिल्लाह । मसीत =मस्जिद । सन्दर्भ -- कबीरदास अन्तमु खी होने का उपदेश देते हैं । भावार्थ -- हे भाई । तुम भगवान मे लौ लगाकर क्यो नही रहते हो ? दिन रात केवल राम-नाम कहते रहो । गुरु के मुख से कलमा का उपदेश सुन कर तथा ग्यान रुपी छुरी से पाँचो इन्दियो के विपयो रुपी पशुअौ का वव करके ईशवरापंण कर देना चाहिये । मन रुपी मस्जिद के भीतर झांक कर किसी ने नही देखा है । वहाँ पर पच पीरो के स्वामी भगवान का स्थायी निवास है। कवीर कहते है कि मैं (वाह्यिचिरो को त्याग कर) भगवान का गुण-गान करता हूँ तथा हिन्दु मुसलमान दोनो को एेसा ही करने को कहता हूँ । अलंकार -(१) गुढोक्ति -काहे न कहिए । (२) रुपक - ग्यान मुखि छुरी, मनमसीति । (३) रुपकातिशयोक्ति - पचूपुरी । (४) छेकानुप्रास - पचू पुरी, पचपीर, मन-मसीति। बिशेष- (१) कबीर बाह्याचारो को छोडकर सच्चे मन से भगवान को याद करने का उपदेश बार- बार देते है अौर अाशा करते हैं कि हिन्दु-मुसलमान पारस्परिक
भेद- भाव को भूल जायेंगे ।
हिन्दू-तूरक की एक राह है, सतगुरु इहै वताई । कहत कबीर सुनो, हो सन्तौ! राम न कहूँ खुदाई । (२) इस पद मे निश्चित रुप से मुसलमान वाह्चाचारो के प्रती विरोध व्यक्त किया है । (३) पाचँ इन्द्रयाँ एव उनके विशय इस प्रकार है -कान-शब्द, जिह्वा -रस, अाँख- रुप, नाक-गघ तथा त्वचा- स्पश । (४, 'कलमा' मे अभेदत्व का प्रतिपादन है --अद्वंत ग्यान है। अत ़ कबीर के मतानुसार उसका सच्चा उपदेश प्राणिमात्र के प्रति समबुद्धि एव प्रेम भावना का चारण है । कलमा का सदेश इन्द्रियो का स्वाद न होकर विपयो के प्रति वंराग्य है। उपयुंक्त पद मे यही मतव्य व्यजित है ।