पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६८०

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परन्तू मृत्यु से किसि प्रकार नही बचा जा सकता है। अत हे भगवान्। मै तुम्हारी शरण मे आया हू। जन्म-मरण के चक से मेरी रक्षा करो।

                            (१४६)
            पांडे न करसि बाद बिबाद,
               या देही विन सबद न सवाद॥ टेक॥
           अंड ब्रहांड खड भी माटी, माटी नवनिधि काया।
           माटी खोजना सतगुर भटेचा, तिन कछु अलखै लखाया॥
           जीयत माती मूवा भी माटी, देखै ग्यांन बिचारी।
          अति कालि माटी मै बासा, लेटं पांय पसारी।
           माटी का चित्र पवन का थंभा,व्यंद सजोगि उपाया।
          भानं घडे सवारै सोई यहु गोव्यद की माया॥
          माटी का मंदिर ज्ञान का दीपक,पवन बाती उजियारा।
         तिहि उजियारै सव जन सूभै, कबीर ग्यांन विचारा॥
   
      शब्दार्थ-यभा=स्तम्भ,खम्भा,सहारा। व्यद=विदु,वीर्य। भानै=टूटे हुए। बाति=बती। उजियारा=प्रकाशित है।
               सदंर्भ-कबीरदास संसार की असारता का घंणन करते है।
               भावाधं-कबीर कहते है कि अरे पण्डित, तुम याद विदाद (शास्त्राथं) मत
    करो।बस शरीर के बिना न शब्द रह जाएगा और न स्वाद रह जाएगा-न तो शाम्त्रायं ही रह जाएगा और न शम्त्रायं का पानन्द ही रह जाएगा। तुम्हारा शाम्त्रायां तो अचलम्नित है शरीर की स्थिति यह है कि यह समष्टि जगत और इन विशब का प्रत्येक- राभी कुछ मिट्टी है। यह नबनिघियो को भोगने यानी शरीर भी माटी का है। इसी मिट्टी के ससार मे खो,ते-खोजते(विभित्र माघनाओ भटते हुए)सदगुरु से मेरी भेट हो जाएगी।उनहोने मुभको उस अलव्या परन वत्व का ज्ञान करा दिया। रे मानव, तू ज्ञान पूर्वक मनन करते देख।यह शरोग वीविन अवस्ता मे भी  मिट्टी  ही हे जोर मरंन परन भी मिट्टी है। इस शरीर को अन्न्य मिट्टि मे ही मिल जाना पडता है और उस समय मे यह जीव ज़मीन पर पंख फैला कर मेट जाता है। यह शरीर मिट्टी का ही पुतला है और प्रान वायू का आधार लेकर तथा केवल वीयं एक रग की बूदो के मयोग से चल उन्पत्र किया गया है।