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[कबीर ६८६]

वह (नुष्टि कर्ता) सृष्टि के समरत रूपों (दृश्यमान जगत) मे व्याप्त है । यदि परमात्मा (अल्लाह) पवित्र है, तो तू (जीव) अपवित्र किस प्रकार हुआ ? अब तू समझ ले कि संसार में अल्लाह (परम नत्त्व) के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । कबीरदास कहने हैं कि उस दयालु की जिस पर दया होती है वही उसकी लीला (करनी) के रहस्य को जान सकता है । अलकार -(१) पुनरुक्ति प्रकाश-ख़ोजि खोजि । पढि पढि । बकि बकि । २) विशेयोक्रि-कुरानां … ॱॱॱ नही जाइ । (३) दृष्टान्त- मचु ॱॱ ॱॱॱॱॱॱॱ माहिं । (४) सभग पद यमक-पाक नापाक । (५) गूर्दात्तिद्ग-तू नापाक क्यू । (६) अनुप्राम- करम करीम करनी करै ।

विशेष-१) वाह्याचार का विरोध है । (२) आत्म-बोध का उपदेश है । (३) शाकर अर्द्धरुद्रवादी व्रह्यवाद का प्रतिपादन है- सैल सूरति माहि- सवम् खरिवदरत्रह्य । अब दूसर नाहीं कोई- एकौरुह द्वितीय) नास्ति । जीवी व्रहाँव ना पर । वलह पाक तू नापाक क्यू -'अह ब्रह्मास्मि’ । (ईश्वर अंश जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी) । इसी आघार पर सूफी घर्म ने भी ब्रनहनंनक' की आवाज़ उठाई वी । (४) कमं करीम का-जानै सोइ ।

ज्ञानी भक्त की भहैति कबीरदास गयान-प्राप्ति के लिए प्रभु के अनुग्रह पर अनप्तन्धितन ह। तुलना कीजिए-

यह गुन ताघन ते नहि होई । तुम्हरी कृपा पाउ काइ कोई ।

तोदृमृब्धदृहे ट्वेंमृहिं देहु जनाई । जानत तुद्रहहिं तुम्हहि होइ जाई ।

है मूर्ति बिदित उपाय सफल अ, दृदृहि दे-, ह्र बीन कूद्दम्पारे है तृलसिदास यहि जीय मोह-रजु, गोई वारुत्री सोइ छोरै । (गोस्वामी तुलरुगेपास)

एहैंदृ १-५ नाग- " श्चा-र्मिगप्त मति जानी न धरै : 3९ ट्ठेतृ ३५८ नूर पनिदृ। टारि जाइ छादृपृदृ भू प्रभु गौ

( २५८ )

शाखिद्र: हरि फाहा ८१ ह्रम्ल : 'मुँडा ज्जणि ब्धदृर्द हुंनंहृनं, नृरव्र करि पेमाल ।९ टेप: प्न॥ शैढटदृदृ। द्रदुरुस्का। दहुँणाम्न, टुव्रर दृरान वि वाल है। पड्डूदृनऱन परवा वृन्द बातन, अमूर न्नाम्भ जाल ।।