पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६९४

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मैं बड़ मैं बड़ मैं बड़ मांटी, मण दसना जट का दस गांठी ।।टेक।। मैं बाबा का जोध हांऊ, अपणी मारी गींद चलाऊं। इनि अहंकार घणें घर घाले, नाचत कूदत जमपुरि चाले।। कहै कबीर करता की बाजी, एक पलक मैं राज बिराजी। शब्दार्थ – नाटका = नाज, टका। टका = रुपया (बंगला प्रयोग)। जोघ = योद्धा। गीद = गेदा। घणे = बहुत से। घाले = नष्ट कीए। बाजी = खेल, लीला। विराजी = राज्य रहित। संदर्भ – कबीर संसार की असारता का वर्णन करते हैं। भावार्थ – अहंकारवश व्यक्ति कहने लगता है कि “ मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा हूँ।” परंतु यह बड़प्पन मिट्टी (व्यर्थ, अत्यन्त अल्प मूल्य) है। दस मन अनाज एवं गांठ में दस रुपए होने के कारण होने वाले बड़प्पन का आधार सर्वथा तुच्छ है। मैं बाबर का योद्धा हूँ अर्थात् गांव के मुखिया का कृपापात्र हूँ और जो अपनी मनमानी करता हूँ। इस प्रकार के अहंकार के फलस्वरूप अनेक घर (परिवार) नष्ट हो गये। ये अहंकारी नाचते कूदते मर गए। कबीरदास कहते हैं कि सब उस सृष्टिकर्ता की लाली है। एक पल के भीतर वह राजा को बिना राज का कर देता है। इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है- जब भगवान की बाजी पड़ती है, तब वह एक क्षण में ही सब कुछ उलट-पुलट कर देता है। अलंकार – (1) अनुप्रास – प्रथम पंक्ति। घणे घर घाले। विशेष – (i) ‘निर्वेद नचारी’ भाव की व्यंजना। (ii) मुहावरों का प्रयोग – (i) बड़ माटी (ii) बाबा का जोध। (iii) अपनी भारी गेंद चलाना। (iv) घर छालना। (261) काहे चीहो मेरे साथी, हूं हाथी हरि केरा। चोरासी लख जाके मुख में, सो च्यंत करेगा मेरा।। टेक।। रूही पोन पिंच कही फोन गाजै, कहां थै पांणी निसरै। ऐसी फना जनत हैं जाके, सो हंम की क्यूं बिसरै। जिनि ब्रह्मांड रच्यो बहु रचना, वाच चरन ससि सूरा। पाइक पच पुरसि जाफै प्रकटै, सो क्यूं कहिये दूरा। नेन नानिका जिनि हरि गिरजे दरान वसन विधि कराया। नापू गन को मो यूं बिसरै, ऐसा है रा रोम राया।। हो काहू का मरम न जाने, मैं मरनांगति तेरी। कहे कबीर धूप गेन राधा, करमति रासहु मेरी।। शब्दार्थ -