पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६९५

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ग्रन्थावली। ६६१ निसरै= निस्सृत होता है, बरसता पाइक= पावक। बाव= वायु। बरन= वरुण। पाइक= पाँच। प्रहमि= पृथ्वी। हुरमति= हुरमत,असमत,इज्जत। भावार्थ- कबीर माया-मोह को सम्बोधित करते हुए कहते है कि "मेरे साथी, तुम मुझे क्यो सताते हो? मैं तो भगवान का साथी हूँ। जिसके भीतर चौरासी लाख योनियाँ समाई हुई है। अर्थात् जन्म-मरण का सम्पुर्ण नरक जिसके सहारे चल रहा है, वही भगवान मेरी चिंता करेगा। कहो, समुद्र मे जल कौन भरता है? बादलो के रुप मे गजेना कौन करता है? तथा यह वर्षा का जल कहाँ से बरसता है। अर्थात वही सब कुछ करता है। जिस भगवान की ऐसी विशाल शक्ती है, वह हमको कैसे भूल जाएगा? जिसने इस ब्रह्माड मे अनेक रचनाएँ की हैं, जिसने वायु, वरुण, चन्द्र और सुर्य को बनाया है, जिससे पाँचो अग्नियाँ और यह पृथ्वी प्रकट हुइ हैं, उस भगवान को दूर कैसे कहा जा सकता है? (क्योकि वह तो सर्वव्यापी एव सर्व नियता है।) जिस भगवान ने आँख, नाक, दाँत आदि अग, वस्त्र एव शरीर आदि बनाए हैं, वह भगवान साधू भक्तो को भला कैसे भुला सकता है? भगवान राजाराम तो बडे ही उदार हैं। कोई किसी का रहस्य नही जानता है। मैं तो भगवान की शरण मे हूँ। कबीर कहते है कि हे पिता। राजा राम, माया के इन चक्करो से मेरी इज्जत की रक्षा करो। (१) पदमैत्री- साथी, हाथी। दसन बसन। (११) गूढोत्तर- कहौ कौन कहिए दूरा। (१११) वत्रोक्ति- साधूजन बिसरै। विशेष- (१) हाथी हरि केरा= मैं उनकी सवारी हुँ तथा उनकी प्रेरणा पर चलता हूँ। सत्य ही है। यह स्थूल शरीर 'आत्म तत्व' का वाहन है। (११) पच अग्नि- प्रकाश, उष्णता गरमी, पिता एव जठराग्नि। (१११) भगवान की शरणागति एव उनके प्रति पूर्ण समर्पण भाव का चित्रण है।

                                 (२६२)
                                राग सोरठि

हरि कौ नाँव न लेह गँवारा,

          क्या सोचै बारंबारा ॥टेक॥

पंच चोर गढ मंझा, गढ लूटें दिवस र सझा॥ जौ गढपति मुहकम होई, तौ लूटी न सकै कोई॥ अँधियारै दीपक चहिये, तब बस्त अगोचर लहिये॥ जब बस्त अगोचर पाई, तब दीपक रह्या समाई॥ जौ दरसन देख्या चहिये, तौ दरपन मंजत रहिये। जब दरपन लागै काई, तब दरसन किया न जाई॥ का पढिये का गुनियें, का बेद पुराना सुनिये॥ पढे गुनें मति होई, मै सहजै पाया सोई॥