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(३) मन चित बुद्धि एव अहंकार के समुच्चय का नाम अन्त करण है। (४) ज्ञान-दीपक ---- अह ब्रहास्मि की वृति। तुलना कीजिए ----

    एहि बिधि लेसं दीप तेज रासि बिग्यान मय।
    जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सव।

सोहस्मि इति बृति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा। आतम अनुभव सुख सु प्रकासा। तब भवभूत भेद भ्रम नासा। प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अवारा। तब सोइ बुद्धि पाइ उँजियारा उर गृँह बैठि ग्रंथि निरुआरा।

                             (गोस्वामी तुलसीदास)
                 (२६३)

अधे हरि बिन को तेरा,

     कवन सूं कहत मेरी मेरा॥ टेक ॥

तजि कुलाक्रम अभिमांनां, भूठे भरमि कहा भुलांनां॥ भूठे तन की कहा बड़ाई, जे निमश मांहि जरि जाई॥ जब लग मनहिं बिकारा, तब लगि नही छूटै ससारा॥ जब मन निरमल करि जांनां, तब निरमल माहि समानां॥ ब्रह्म अगनि ब्रह्म सोई, अब हरि बिन और न कोई॥ जब पाप पु नि भ्रम जारी, तब भयौ प्रकास मुरारि॥ कहै कबीर हरि एसा, जहॉ जैसा तहॉ तैसा॥ भूलै भरमि परै जिनि कोइ, राआ राम करै सो होई॥ शब्दार्थ---- निमष= निमिष, पल । सन्दर्भ---- कबीरदास ज्ञानी भक्त की भांति भगवान के प्रति अनन्यता का प्रतिपादन करते हैं। भवार्थ---- हे मूर्ख। भगवान को छोड कर तेरा कौन है? इस संसार मे तुम किसको अपना कह रहे हो? उच्च कुल मे उत्पन्न होने का अभिमान छोड दो। इस कुलीनता के भूठे भ्रम मे व्यर्थ ही भूल रहे हो। नाशवान शरीर के प्रति आसक्ति क्या करना (यह आस्कित व्यर्थ है)। जो एक क्षणभर मे जल कर नष्ट हो जाता हे। जब तक मानव के मन मे विकार (काम, क्रोध, लोभ आदि) हैं, तब तक इस संसार (अवागमन एव उससे उत्पन्न कष्ट) से छुटकारा नही है। जब व्यक्ति विषय-वासनाओ एव विकारो को त्याग कर अपने मन को निर्मल कर लेता है, तब वह शुद्ध मन शुद्ध तत्व मे समा जाता है। जो ब्रह्म का ज्ञान कराने वाली ज्ञानाग्नि है वही वस्तुत ब्रह्म है। ज्ञान उत्पन्न होने पर ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ रह ही नही जाता है। जब पाप-पुण्य (कर्म) का भ्रम नष्ट हो जाता है--- अथवा जब व्यक्ति निष्पृह होकर कर्म करने लगता है, तब मात्र भगवान का साक्षात्कार कराने वाली ज्योति रह जाती है। कबीर कहते है कि भगवान का