पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/६९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

न्वरुप ऐसा हे कि जो जैसा हे उसको वह वैसा ही दिखाई देता है अर्थात उसका स्वरूप अनिवंचनीय है। व्यक्ति अपने चेतना विकास के अनुसार उसकि अनुभूति करता है। किमी को कतीपन के भ्रम मे नही पडना चाहिए। समझ लेना चाहिए कि राजा राम जैसा करते हे वैसा ही होता है अर्थात मानव कुछ नही करता है, सब कुछ भगवान का ही किया हुआ होता है।

अलंकार--- (१) वत्रोक्ति अन्वे-- मेरा।

        (२) ग्ढोक्ति -- कहाँ भुलाना।
        (३) रूपक -- ब्रह्म अग्नि।

विशेष--- (१) जानि पाँति का विरोध है। (२) मन की शुद्धि का प्रतिपदान है। (३) अदृतैवाद का प्रतिपादन किया गया है--- जब मन ॱ ॱ ॱ कोई। साथ हो ब्रह्म की अनिवंचनीयता का प्रतिपादन किया गया है--'जहाँं जैसा तहाँ तैसा। कबीर ने अन्यत्र भी कहा हे कि-- एसा नही वैसा वो। मै किस विधि कहूँ कैसा लो।" (४) उस पद मे प्रबानत ज्ञान ओर भक्ति का प्रतिपादन है। कतिपम पनियो मे गामारिक नैरात्म्यवाद की ओर भी सकेत किया गया है।

                 (२६४)

मन रे सरचौ न एकौ काजा,

     ताथे भज्यौ न जगपति राजा॥ टेक ॥ 

वबेद पुरांन सुमृत गुन पढ़ि, पढ़ि गुनि मरम न पावा । संध्या गाइत्रो अरू घट करमां, तिन थै दूरि बतावा॥ वनखंडि जाई बहुत तप कीन्हां, कद पूल खनि खावा । बिरह्म गियानो अधिक चियानी, जम कै पटै लिखावा॥ रोजा किया निमाज गुजारी, वग दे लोग सुनावा । हिरदै कपट मिलै क्यू साईं, क्या हज कावै जावा॥ पहरचौ काल सफल जग ऊपरि, माहि लिखे सब ग्यानी । कहे कबीर ते भये पालसे, राम भगति जिनि जानी ।